गुरु पूर्णिमा

कुछ तथ्य
वैदिक विज्ञान पर आधारित एडवांस कलर थेरेपी के अनुसार भगवा रंग समृद्धि और आनंद का प्रतीक माना जाता है, यह रंग न केवल आँखों को एक अपूर्व राहत व शांति देता है बल्कि मानसिक रूप से संतुलन बनाने के साथ यह क्रोध पर नियंत्रण करते हुए प्रसन्नता को बढ़ाता है.
ज्योतिष शास्त्र में भगवा रंग वृहस्पति गृह का रंग है. यह ज्ञान को बढाने और आध्यात्मिकता का प्रसार करता है. भगवा पवित्र रंग है और युगों से हमारे धार्मिक आयोजनों में और साधु-संतों के पहनावे में प्रयोग होता रहा है. हमारे पूर्वज भगवा ध्वज के सम्मुख नतमस्तक होते रहे हैं. सूर्य में विधमान आग और वैदिक यज्ञ की समिधा से निकलने वाली आग भी भगवा रंग की है.
भारतवर्ष में विदेशी आक्रांताओं और आक्रमणकारियो के खिलाफ युद्ध भी भगवा ध्वज के तले ही लड़े गए.
भगवा रंग प्रकृति से भी जुड़ा हुआ है, सूर्यास्त और सूर्योदय के समय ऐसा प्रतीत होता है मानो प्रकृति का पुनर्जन्म हो रहा हो. सूर्य की यह लालिमा नकारात्मक तत्वों साफ़ करती है.
प्राचीन इतिहास
ऐसी मान्यता है कि भगवान शिव ने माँ पार्वती को अमरकथा सुनाई थी और आत्मा व योग का परम ज्ञान भी दिया था. भगवान शिव द्वारा आत्मतत्व का ज्ञान देने के दौरान माता पार्वती के मन में वैराग्य व अत्यधिक त्याग की भावना जाग्रत हो गई और उन्होंने इस विरक्त भाव में अपनी नस और नाख़ून काट लिए, उनके खून का रंग सारे कपड़ो तक पहुंच गया. यहाँ उनके चोले में विद्यमान खून भगवाकरण (त्याग) का महत्व बताता है. कुछ वर्षो बाद जब गोरक्षनाथ माँ पार्वती को सम्मान देने के लिए पहुंचे, तो मातृत्व का अनुभव कर वह ममता से भर गईं. वह गोरक्षनाथ को देखकर बहुत प्रसन्न हुईं और उन्होंने वह चोला गोरक्षनाथ को दे दिया. तब से सभी साधु और संन्यासी भगवा एवं लाल रंग के वस्त्र धारण करते हैं. (www.haribhakt.com)
लंका पर आक्रमण करते समय भगवान राम ने रघुवंश की ध्वजा के नीचे रावण से युद्ध किया था. कुर्म और स्कन्द पुराणों के अनुसार रघुवंश के ध्वज पर तीन त्रिज्याएँ अंकित थी जो अग्नि की ज्वालायें जैसी दिखती थी. इस पर उनके कुलदेवता सूर्य की छवि अंकित थी तथा उसकी पृष्ठभूमि लाल थी. (घ्वज मनुष्य शीर्षम रामायण, युद्ध 100.14)
युद्धभूमि के लिए प्रस्थान से जाने से पहले योद्धा अपने हाथों से अपने रथ पर ध्वजा लगाते थे. महाभारत काल में अर्जुन युद्धभूमि के लिए जाने से पहले अपने रथ ‘नांदीघोष’ की परिक्रमा करते, उसके बाद कवच पहनने के बाद अपनी कपि-ध्वजा फहराते थे. अर्जुन की ध्वजा पर भगवान हनुमान की छवि अंकित थी.
मुगलों के खिलाफ भगवा ध्वज
राजपूत शासक ध्वजा को बहुत महत्व देते थे. चित्तौड़ के राणाओं के पूर्वज बाप्पा राव सूर्यवंशी थे. उनकी ध्वजा पर लालीम पृष्ठभूमि पर सुनहरे सूर्य की आकृति अंकित थी. इसे वे चंगी कहते थे (जे. टॉड, एनेल्स एंड एक्टिविटीज ऑफ़ राजस्थान, पृष्ठ 196) महाराणा प्रताप ने हल्दी घाटी के युद्ध में इसी ध्वज का इस्तेमाल किया था.
17वीं शताब्दी में बीकानेर रियासत की ध्वजा भगवा और लाल रंग की थी, जिस पर चील पक्षी की आकृति अंकित थी. यह पक्षी देवी दुर्गा का प्रतिनिधित्व करता था
जोधपुर रियासत की ध्वजा को पंचरंग कहा जाता था, जिसमें भगवा, गुलाबी, सफ़ेद, लाल, पीला और हरा रंग थे.
नागपुर के भोसलें शासक भगवा ध्वज का प्रयोग करते थे.
छत्रपति शिवाजी महाराज के पिता शाहजी सिर्फ भगवा ध्वज का इस्तेमाल करते थे.
झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई ने ने युद्ध अपने हनुमान ध्वज के निचे लड़ा था.

 

 


ब्रिटिश भारत का पहला भगवा ध्वज
मिस मैक्लियोड को सिस्टर निवेदिता ने 5 फरवरी, 1905 को एक पत्र लिखा, “हमने राष्ट्रीय झंडे की एक रुपरेखा बनाई है, जिस पर वज्र अंकित है बल्कि एक (झंडा) बना भी लिया है. पर अज्ञानतावश मैंने चीन के युद्ध के झंडे को अपना आदर्श बना कर काले रंग का चुनाव किया. काला रंग भारत में पसंद नहीं किया जाता. इसलिए अगला झंडे मैं सिंदूरी रंग और पीला रंग रहेगा. (प्रवज्या आत्मप्राण, सिस्टर निवेदिता ऑफ़ रामकृष्ण विवेकानंद, 1961, पृष्ठ 189)

साल 1905 में सिस्टर निवेदिता ने एक ध्वज बनाया जिसपर वज्र (इंद्र देवता का शस्त्र) अंकित था. इसका रंग लाल और पीला था. दिसंबर 1906 के कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन में सिस्टर निवेदिता द्वारा बनाये गए ध्वज को प्रदर्शित किया गया. इस अधिवेशन की अध्यक्षता दादाभाई नैरोजी ने की थी.
सिस्टर निवेदिता का ध्वज वर्गाकार और सतह लाल थी. इसकी किनारियों पर चारों ओर 108 ज्योतियाँ बनी हुई थी. पीले रंग मे वज्र बीच में और बांग्ला में ‘बंदे’ और दायीं ओर ‘मातरम’ अंकित था.
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस द्वारा भगवा का प्रयोग
राष्ट्रीय झंडा समिति – 1931 की रिपोर्ट के अंश
2 अप्रैल 1931 को कराची में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की बैठक हुई जिसमें एक प्रस्ताव पारित किया गया, “सात सदस्यों की एक समिति मौजूदा झंडे पर उठने वाले सवालों के जवाब तलाशने के साथ कांग्रेस की ओर से देश के एक नए प्रस्तावित झंडे पर विचार देने की जिम्मेदारी पूरी करेगी.” समिति को अधिकार दिया गया कि वह सभी साक्ष्यो के साथ 31 जुलाई 1931 तक अपनी रिपोर्ट सौप दे.
समिति सदस्य : 1. सरदार वल्लभभाई पटेल, 2. मौलाना अब्दुल कलाम आज़ाद, 3. मास्टर तारा सिंह, 4. पंडित जवाहरलाल नेहरू, 5. प्राचार्य डी.बी. कालेलकर, 6. डॉ. एन.एस. हार्दिकर और 7. डॉ. बी. पद्दाभि सीतारमैय्या (संयोजक)
इसके तुरंत बाद समिति द्वारा निम्नलिखित प्रश्नावली तैयार की गई और सभी जगह इसे प्रसारित किया गया –
1. क्या आपके प्रांत में लोगों के समूह अथवा समुदाय में राष्ट्रीय झंडे के डिजाईन के संबंध में कोई बात है, जो आपके विचार में समिति को संज्ञान में लेनी चाहिए?
2. क्या झंडे को लोकप्रिय बनाने के लिए आपके पास कोई विशेष सुझाव है?
3. क्या झंडे के वर्तमान डिजाईन में आपको कुछ अनुचित या कोई कमी दिखाई पड़ती है जिसकी ओर ध्यान देने की आप मांग कर सकते है.
रिपोर्ट का सार
अब यह समिति को ही तय करना है कि राष्ट्रीय झण्डे के लिए कौन से रंग उपयुक्त होंगे. हमारी यह सोच है कि झंडा विशेष, कलात्मक, आयताकार और गैर-साम्प्रदायिक हो. एकमत से सबकी राय यह है कि हमारा राष्ट्रीय झंडा एक ही रंग का होना चाहिए, यदि कोई एक रंग हो जो सभी भारतीयों में अधिक स्वीकृत हो, जो देश की प्राचीन सनातन परंपरा से मेल खाता हो, यह तो केसरिया अथवा भगवा रंग ही हो सकता है, ऐसा महसूस किया गया कि झंडा केसरिया रंग का ही होना चाहिए, झंडे के साथ लगे यंत्र का रंग अलग प्रस्तावित था. सर्वसम्मति से इसके लिए चरखा प्रस्तावित किया गया. इसके अलावा अन्य यंत्रो – हल, कमल का फूल आदि पर भी चर्चा की गई. लेकिन अंतिम मुहर चरखा पर ही लगी क्योंकि चरखा ही वास्तव में वह माध्यम था जो आज़ादी के आंदोलन में महत्वपूर्ण हथियार रहा, इसका स्थान कोई और यंत्र नही ले सकता था. अब हमें चरखे का रंग तय करना चाहिए. कुल मिलकर समिति इस निर्णय पर पहुंची है कि चरखा नीले रंग में होना चाहिए, इसलिए अब हम संस्तुति करते है कि राष्ट्रीय झंडा केसरी अथवा भगवा होना चाहिए और इसके बायीं ओर सबसे ऊपर चरखा पहियों तक नीले रंग का होना चाहिए. झंडे को फहराने के लिए आनुपातिक रूप में 3×2 का होना चाहिए.
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भगवा ध्वज
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवक किसी व्यक्ति या ग्रंथ की जगह भगवा ध्वज को अपना मार्गदर्शक और गुरु मानते हैं। जब डॉ. हेडगेवार ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का प्रवर्तन किया, तब अनेक स्वयंसेवक चाहते थे कि संस्थापक के नाते वे ही इस संगठन के गुरु बनें; क्योंकि उन सबके लिए डॉ. हेडगेवार का व्यक्तित्व अत्यंत आदरणीय और प्रेरणादायी था। इस आग्रहपूर्ण दबाव के बावजूद डॉ. हेडगेवार ने हिंदू संस्कृति, ज्ञान, त्याग और संन्यास के प्रतीक भगवा ध्वज (केसरिया झंडा) को गुरु के रूप में प्रतिष्ठित करने का निर्णय किया। हिंदू पंचांग के अनुसार हर वर्ष व्यास पूर्णिमा (गुरु पूर्णिमा) के दिन संघ-स्थान पर एकत्र होकर सभी स्वयंसेवक भगवा ध्वज का विधिवत् पूजन करते हैं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ हर साल जिन छह उत्सवों का आयोजन करता है, उनमें गुरुपूजा कई दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण है।
अपनी स्थापना के तीन साल बाद संघ ने सन् 1928 में पहली बार गुरुपूजा का आयोजन किया था। तब से यह परंपरा अबाध रूप से जारी है और भगवा ध्वज का स्थान संघ में सर्वोच्च बना हुआ है। ध्वज की प्रतिष्ठा सरसंघचालक (संघ प्रमुख) से भी ऊपर है।
केसरिया झंडे को ही संघ ने सर्वोच्च स्थान क्यों दिया? यह प्रश्न बहुतों के लिए पहेली बना हुआ है। भारत और कई दूसरे देशों में ऐसे अनेक धार्मिक-आध्यात्मिक संगठन हैं, जिनके संस्थापकों को गुरु मानकर उनका पूजन करने की परंपरा है। भक्ति आंदोलन की समृद्ध परंपरा के दौरान और आज भी किसी व्यक्ति को गुरु मानने में कोई कठिनाई नहीं है। इस प्रचलित परिपाटी से हटकर संघ में डॉ. हेडगेवार की जगह भगवा ध्वज को गुरु मानने का विचार विश्व के समकालीन इतिहास की अनूठी पहल है। जो संगठन दुनिया का सबसे बड़ा स्वयंसेवी संगठन बन गया है, उसका सर्वोच्च पद अगर एक ध्वज को प्राप्त है तो निश्चय ही यह गंभीरता से विचार करने का विषय है। संघ के अनेक वरिष्ठ स्वयंसेवकों ने इस रोचक पक्ष पर प्रकाश डालने का प्रयास किया है।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के विचारक एच.वी. शेषाद्रि के अनुसार, “ भगवा ध्वज सदियों से भारतीय संस्कृति और परंपरा का श्रद्धेय प्रतीक रहा है। जब डॉ. हेडगेवार ने संघ का शुभारंभ किया, तभी से उन्होंने इस ध्वज को स्वयंसेवकों के सामने समस्त राष्ट्रीय आदर्शों के सर्वोच्च प्रतीक के रूप में प्रस्तुत किया और बाद में व्यास पूर्णिमा के दिन गुरु के रूप में भगवा ध्वज के पूजन की परंपरा आरंभ की।”


अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् (ABVP), भारतीय मजदूर संघ (BMS), वनवासी कल्याण आश्रम (VKA), भारतीय किसान संघ (BKS) और विश्व हिंदू परिषद् (VHP) जैसे कई संगठनों ने इस भगवा ध्वज को अपना लिया। इस तरह देश भर में संघ की दस हजार से अधिक शाखाओं में तो विशिष्ट आकार के भगवा ध्वज प्रतिदिन फहराए जाते ही रहे हैं, संघ से प्रेरित-प्रवर्तित कई संगठन भी अपने सार्वजनिक समारोहों में केसरिया झंडे का प्रयोग विगत कई दशकों से करते आ रहे हैं। यह भगवा रंग राष्ट्रीय प्रतीक रूप में भारत के करोड़ों लोगों के मन में विशिष्ट स्थान बना चुका है।
शेषाद्रि इस बात की भी चर्चा करते हैं कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के बाहर मजदूरों के बीच काम करते हुए केसरिया झंडे के नेतृत्व को आम स्वीकृति दिलाना कितना चुनौतीपूर्ण था; क्योंकि इस क्षेत्र में लंबे समय से दुनिया भर में सक्रिय साम्यवादी आंदोलन और उसके लाल झंडे का खासा प्रभाव था। भारतीय मजदूर संघ ने मजदूरों के बीच भी उस केसरिया झंडे को स्वीकृति दिलाई, जो विश्व-कल्याण का प्रतीक है। कई वर्षों के संघर्ष के बाद अब श्रमिक संगठन भारतीय मजदूर संघ अपने विभिन्न कार्यक्रमों में केसरिया झंडे को शान के साथ फहराने की स्थिति में आ गया है। मार्च 1981 में भारतीय मजदूर संघ ने अपने छठे राष्ट्रीय सम्मेलन के दौरान जब साम्यवादी प्रभाव वाले महानगर कलकत्ता की सड़कों पर विशाल जुलूस निकाला था, तब लोग हजारों हाथों में परंपरागत लाल झंडे की जगह केसरिया झंडे देखकर आश्चर्यचकित रह गए थे। कलकत्ता के प्रमुख अखबारों ने उस समय मजदूरों के बीच उभरी इस नई केसरिया ताकत को महसूस किया था।
संघ के महाराष्ट्र प्रांत कार्यवाह एन.एच. पालकर ने भगवा ध्वज पर एक रोचक पुस्तक लिखी है। मूलत: मराठी में लिखी यह पुस्तक सन् 1958 में प्रकाशित हुई थी। बाद में इसका हिंदी संस्करण प्रकाशित हुआ। 76 पृष्ठों की इस पुस्तक के अनुसार, सनातन धर्म में वैदिक काल से ही भगवा ध्वज फहराने की परंपरा मिलती हैं।
पालकर के अनुसार, “वैदिक साहित्य में ‘अरुणकेतु’ के रूप में वर्णित इस भगवा ध्वज को हिंदू जीवन-शैली में सदैव प्रतिष्ठा प्राप्त रही। यह ध्वज हिंदुओं को हर काल में विदेशी आक्रमणों से लड़ने और विजयी होने की प्रेरणा देता रहा है। इसका सुविचारित उपयोग हिंदुओं में राष्ट्र रक्षा के लिए संघर्ष का भाव जाग्रत् करने के लिए होता रहा है।”
पालकर ने भगवा ध्वज के राष्ट्रीय चरित्र को सिद्ध करने के लिए कई ऐतिहासिक घटनाओं का उल्लेख किया है। कुछ घटनाएँ इस प्रकार हैं :
• सिखों के दसवें गुरु श्री गुरु गोविंद सिंह ने जब हिंदू धर्म की रक्षा के लिए हजारों सिख योद्धाओं की फौज का नेतृत्व किया, तब उन्होंने केसरिया झंडे का उपयोग किया। यह ध्वज हिंदुत्व के पुनर्जागरण का प्रतीक है। इस झंडे से प्रेरणा लेते हुए महाराजा रणजीत सिंह के शासन काल में सिख सैनिकों ने अफगानिस्तान के काबुल-कंधार तक को फतह कर लिया था। उस समय सेनापति हरि सिंह नलवा ने सैनिकों का नेतृत्व किया था।
• पालकर ने लिखा है कि जब राजस्थान पर मुगलों का हमला हुआ, तब राणा साँगा और महाराणा प्रताप के सेनापतित्व में राजपूत योद्धाओं ने भी भगवा ध्वज से वीरता की प्रेरणा लेकर आक्रमणकारियों को रोकने के लिए ऐतिहासिक युद्ध किए। छत्रपति शिवाजी और उनके साथियों ने मुगल शासन से मुक्ति और हिंदू राज्य की स्थापना के लिए भगवा ध्वज की छत्रछाया में ही निर्णायक लड़ाईयाँ लड़ीं।
• पालकर मुगलों के आक्रमण को विफल करने के लिए दक्षिण भारतीय राज्य विजयनगरम् के राजाओं की सेना का भी उल्लेख करते हैं, जिसमें भगवा ध्वज को शौर्य और बलिदान की प्रेरणा देनेवाले झंडे के रूप में फहराया जाता था। मध्यकाल के प्रसिद्ध भक्ति आंदोलन और हिंदू धर्म में युगानुरूप सुधार के साथ इसके पुनर्जागरण में भी भगवा या संन्यासी रंग की प्रेरक भूमिका
थी।
• भारत के अनेक मठ-मंदिरों पर भगवा झंडा फहराया जाता है, क्योंकि इस रंग को शौर्य और त्याग जैसे गुणों का प्रतीक माना जाता है।
• अंग्रेजी राज के विरुद्ध सन् 1857 में भारत के पहले स्वाधीनता संग्राम के दौरान केसरिया झंडे के तले सारे क्रांतिकारी एकजुट हुए थे।” उन्होंने पुस्तक के अंत में निष्कर्ष के तौर पर लिखा है कि भगवा ध्वज के संपूर्ण इतिहास का अध्ययन करने से स्पष्ट है कि इसे हिंदू समाज से अलग करना संभव नहीं है। यह ध्वज हिंदू समाज और हिंदू राष्ट्र का सहज स्वाभाविक प्रतीक है।
संघ की शाखा या प्रशिक्षण शिविर में जब भगवा ध्वज के महत्त्व पर बौद्धिक विमर्श होता है, तब मुख्यत: वही बातें स्वयंसेवकों को बताई जाती हैं, जिनका उल्लेख पालकर की पुस्तक में किया गया है।
लेखक ने संक्षेप में हिंदू राष्ट्र, हिंदू समाज, हिंदू संस्कृति, हिंदू जीवन-शैली और दर्शन–सबको भगवा ध्वज से अभिन्न रूप से जोड़कर देखा है। वे मानते हैं कि यह ध्वज हिंदुओं को त्याग, बलिदान, शौर्य, देशभक्ति आदि की प्रेरणा देने में सदैव सक्षम रहा है।
यह ध्वज हिंदू समाज के सतत संघर्षों और विजश्री का साक्षी रहा है। हिंदू संस्कृति और हिंदू राष्ट्र ‘भगवा ध्वज’ के बिना हम हिंदू धर्म की कल्पना नहीं कर सकते। (‘धर्म’ शब्द का प्रयोग हिंदुत्व के विद्वानों के अनुसार किया गया है, अर्थात् धर्म जीवन जीने का मार्ग है तथा इसे कुछ रीति-रिवाजों, कर्म-कांडों तक सीमित ‘धर्म’ की रूढ़िवादिता के समतुल्य नहीं माना जा सकता) संस्कृति किसी भी देश की जीवनरेखा होती है। हिंदू संस्कृति हमारे देश की जीवन-रेखा है तथा ‘भगवा ध्वज’ हिंदू संस्कृति का प्रतीक है।
पालकर का यह बयान अत्यंत महत्त्वपूर्ण है कि भगवा ध्वज के अस्तित्व पर इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता है कि इसे कोई शासकीय मान्यता दी गई या नहीं। यही कारण है कि आज भी अनेक सामाजिक – राजनीतिक संगठनों, जातियों और उपजातियों के लिए भगवा ध्वज आदरणीय है।
यह हिंदू समाज की आकांक्षाओं का प्रतीक है और इसमें वह ऊर्जा भी है, जो उन आकांक्षाओं को साकार करने के लिए समाज को प्रेरित कर सकती है। यह ऊर्जा भले ही प्रकट न हो, लेकिन इसे हम संगठित हिंदू समाज के रूप में अवश्य देख सकते हैं।
भगवा ध्वज को गुरु के रूप में प्रतिष्ठित करने के पीछे संघ का दर्शन यह है कि किसी व्यक्ति को गुरु बनाने पर उसमें पहले से कुछ कमजोरियाँ हो सकती हैं या कालांतर में उसके सद्गुणों का क्षय भी हो सकता है; लेकिन ध्वज स्थायी रूप से श्रेष्ठ गुणों की प्रेरणा देता रह सकता है।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने मुख्यत: तीन कारणों से भगवा ध्वज को गुरु के रूप में स्वीकार किया
• एक, ध्वज के साथ ऐतिहासिकता जुड़ी है और यह किसी संगठन को एकजुट रखते हुए उसके विकास में सहायक होता है
• दो, भगवा ध्वज में सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की वह विचारधारा सर्वाधिक प्रखर रूप में प्रतिबिंबित होती है, जो संघ की स्थापना का प्रबल आधार है।
• तीन, किसी व्यक्ति की जगह सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के प्रतीक भगवा ध्वज को सर्वोच्च स्थान देकर संघ यह सुनिश्चित करने में सफल रहा कि वह व्यक्ति-केंद्रित संगठन नहीं बनेगा। यह सोच बहुत सफल रही। फलस्वरूप पिछले 90 वर्षों के दौरान जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में संगठन का आधार व्यापक हुआ और संघ में सर्वोच्च पद को लेकर कभी कोई विवाद नहीं हुआ। इस तरह के संगठन में शीर्ष नेतृत्व के उत्तराधिकार को लेकर संघर्ष न होना आश्चर्यजनक है और बहुत हद तक इसका श्रेय भगवा ध्वज को गुरु मानने के डॉ. हेडगेवार के निर्णय को दिया जा सकता है।
संघ के सर्वोच्च पदाधिकारी (सरसंघचालक) सहित सभी स्वयंसेवक भगवा ध्वज को सादर नमन करते हैं। संघ की अनेक शाखाओं में वर्ष-पर्यंत प्रतिदिन फहराया जानेवाला भगवा ध्वज कई दशकों से सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की प्रेरणा देता रहा है। यही कारण है कि संघ के स्वयंसेवक अपनी विचारधारा के साथ बड़ी गहराई से जुड़े रहते हैं।
गुरु दक्षिणा
संघ की प्रत्येक शाखा ‘व्यास पूर्णिमा’ पर गुरुपूजा और गुरु दक्षिणा का कार्यक्रम आयोजित करती है। इसके दो मुख्य उद्देश्य हैं – पहला, प्राचीन भारत की उस गुरु-शिष्य परंपरा को आगे बढ़ाना, जिसमें शिक्षा पूरी करने वाले सभी शिष्य आदर और कृतज्ञता के भाव से अपने गुरु को यथाशक्ति दक्षिणा (धनराशि) अर्पित करते थे। इसमें धन की राशि नहीं, कृतज्ञता की भावना महत्त्व रखती है। गुरुपूजा का कार्यक्रम आम तौर पर प्रात:काल किसी सभागार में बड़ी सादगी के साथ संपन्न किया जाता है। स्वयंसेवक इस कार्यक्रम में गणवेश में नहीं, बल्कि पारंपरिक भारतीय परिधान (धोती-कुरता या पाजामा-कुरता) में उपस्थित होते हैं।
गुरुपूजा कार्यक्रम का प्रारंभ भी शाखा लगने की तरह किसी कमरे या सभागार में भगवा ध्वज फहराने के साथ होता है; लेकिन उस दिन सिर्फ ध्वज-पूजन और बौद्धिक का कार्यक्रम होता है। पूजन के ध्वजदंड के निकट धूप-दीप जलाकर वहाँ संघ के संस्थापक डॉ. हेडगेवार और उनके परवर्ती सरसंघचालक माधव सदाशिव गोलवलकर (जिन्हें स्वयंसेवक आदर के साथ ‘गुरुजी’ कहते हैं) के बड़े आकार के चित्र रखे जाते हैं। पास में ही पुष्प रखे होते हैं, जिनसे ध्वज की पूजा की जा सके।
सभी स्वयंसेवक फर्श पर दरियों पर बैठते हैं या चादर बिछाकर बैठते हैं। इससे पहले कमरे को भलीभाँति साफ किया जाता है। कमरे में एकदम शांति विराजमान होती है। हर स्वयंसेवक के लिए अनिवार्य होता है कि वह कार्यक्रम आरंभ होने से पहले उपस्थित हो। सभी लोग कतारों में बैठते हैं। कार्यक्रम आरंभ होने से पूर्व उन्हें एक सादा लिफाफा दिया जाता है। इस पर शाखा के मुख्य शिक्षक/शाखा कार्यवाह द्वारा स्वयंसेवक का नाम लिखा होता है। गुरु दक्षिणा की समय सूची के बारे में जानकारी के साथ ये लिफाफे व्यक्तिश: स्वयंसेवकों के घर पर दिए जाते हैं।
कार्यक्रम की सूचना सबको दी जाती है और प्रयास होता है कि एक बार भी शाखा में आए स्वयंसेवक को गुरुपूजा में अवश्य सम्मिलित किया जाए। नए स्वयंसेवकों को संगठन से जुड़ा रखने के लिए यह प्रयास महत्त्वपूर्ण माना जाता है।
गुरु दक्षिणा कार्यक्रम सादगी भरा होता है। लेकिन उसमें गुरु के प्रति श्रद्धा-कृतज्ञता का जैसा आध्यात्मिक वातावरण बनता है, नए स्वयंसेवकों पर उसका विशेष प्रभाव पड़ता है। स्वयंसेवक इस अवसर पर देशभक्ति के गीत का समूह गान करते हैं। इन गीतों में भारत के स्वर्णिम अतीत की गौरव गाथा होती है या राष्ट्र को वैभवशाली बनाने के लिए त्याग-समर्पण की भावना।
धूपबत्ती एवं अगरबत्तियाँ जलाई जाती हैं। चारों ओर भीनी खुशबू फैल जाती है। ‘गुरु’ की प्रशंसा में प्रत्येक स्वयंसेवक संस्कृत के कुछ श्लोक गाता है तथा गुरु के प्रति आभार प्रकट करता है। स्वयंसेवक मिलकर देशभक्ति के गीत गाते हैं तथा भारत के ‘स्वर्ण युग’ को याद करके गौरवमय अतीत को लौटा लाने की कसम खाते हैं।
कार्यक्रम में सभी स्वयंसेवक बारी-बारी से ध्वज के समीप आते है , ध्वज को प्रणाम करते हैं, पुष्प से पूजन करते हैं, लिफाफे में बंद राशि अर्पित करते हैं और पुन: प्रणाम कर अपने स्थान पर लौट आते हैं। इसे ‘ध्वज प्रणाम’ कहा जाता है। गुरु दक्षिणा के रूप में किसने कितनी राशि अर्पित की, कोई न यह जानने का प्रयास करता है, न यह बताया जाता है। स्वयंसेवक पुन: ध्वज प्रणाम करके अपने स्थान पर बैठ जाता है तथा फिर अगला स्वयंसेवक इसी प्रकार से ‘गुरु दक्षिणा’ अर्पित करता है।
‘गुरु दक्षिणा’ के बाद उस कार्यक्रम में विशेष रूप से आमंत्रित किसी गण्यमान्य व्यक्ति या संघ के किसी वरिष्ठ अधिकारी का बौद्धिक संबोधन होता है। संघ अपेक्षा करता है कि शाखा को मुख्य शिक्षक अपने क्षेत्र में रहनेवाले किसी सम्मानित डॉक्टर, वकील, प्राध्यापक, सेना के अवकाश-प्राप्त अधिकारी या सुविख्यात व्यक्ति को मुख्य वक्ता के रूप में आमंत्रित करने के लिए गुरु दक्षिणा कार्यक्रम के अवसर का उपयोग करें। इससे संगठन को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से इतर सदस्यों को शामिल करने में मदद मिलती है। अब तक का अनुभव यही है कि जो भी विशिष्ट व्यक्ति संघ के गुरु दक्षिणा कार्यक्रम में मुख्य वक्ता के रूप में पहली बार आता है, वह इतना प्रभावित होता है कि स्वयंसेवक न होते हुए भी संघ का आजीवन प्रशंसक और मित्र बन जाता है।
दैनिक शाखा की तरह कार्यक्रम का समापन संघ की ध्वज प्रार्थना से होता है।
गुरु दक्षिणा कार्यक्रम की अवधारणा संघ के प्रारंभिक दिनों में की गई थी। इसके दो उद्देश्य थे : पहला, संगठन के विस्तार के संगठन के भीतर से ही धन की व्यवस्था करना और दूसरा, यह स्थापित करना कि संघ में भगवा ध्वज ही सर्वोच्च गुरु है।
कालांतर में गुरु दक्षिणा कार्यक्रम ऐसे स्वयंसेवकों को भी कम-से-कम वर्ष में एक बार जोड़ने का सशक्त माध्यम बन गया, जो नियमित शाखा नहीं आ पाते। कम-से-कम वर्ष में एक बार सभी परस्पर मिल सकें।
समय के साथ जब अनेक स्वयंसेवक जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में संघ के प्रमुख संगठनों में काम करते हुए देश भर में फैल गए, तब ऐसे स्वयंसेवकों के लिए संघ कार्यालय या किसी सभागार में अलग से गुरु दक्षिणा कार्यक्रम किए जाने लगे। इसमें भी अधिकतर ऐसे स्वयंसेवक सम्मिलित होते हैं, जो नियमित शाखा नहीं जाते। प्रशासन, पत्रकारिता, चिकित्सा आदि पेशे से जुड़े स्वयंसेवकों की गुरु दक्षिणा के लिए भी सुविधानुसार अलग कार्यक्रम किए जाते हैं।
गुरु दक्षिणा से सबसे ज्यादा महत्त्वपूर्ण सीख यह मिलती है कि इस कार्यक्रम का मूल मंत्र ईमानदारी’ है-किस प्रकार से पैसा सँभाला जाता है तथा स्वयंसेवक की संगठन में हैसियत पर ध्यान दिए बिना इस धन राशि का इस्तेमाल किया जाता है। कार्यक्रम के बाद मुख्य शिक्षक और कार्यवाह लिफाफा (सार्वजनिक रूप से नहीं) खोलते हैं और एक सूची तैयार करते हैं, जिसमें पूरा विवरण होता है। सूची से पता चलता है कि किस स्वयंसेवक ने कितनी दक्षिणा दी। प्राप्त राशि के साथ यह सूची ऊपर के अधिकारियों से होती हुई केंद्रीय स्तर तक पहुँचती है; लेकिन इस सूची को कभी सार्वजनिक नहीं किया जाता। इसी धन से संघ अपने जरूरी संगठनात्मक व्यय को वहन करता है। संघ के 90 साल के इतिहास में गुरु दक्षिणा राशि में घपले या भ्रष्टाचार का एक भी मामला सामने नही आया। संघ के अधिकारी मानते हैं कि संगठन के भ्रष्टाचार मुक्त रहने और इसकी समस्त गतिविधियों की सफलता का मूल स्रोत चरित्र-निर्माण पर बल दिया जाना है। वर्ष में एक बार ‘गुरु दक्षिणा’ दी जाती है। सामान्यत: किसी महीने में एक बार या दो बार गुरु दक्षिणा के लिए तिथि/तिथियाँ तय की जाती हैं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ शाखा और अन्य संबद्ध संगठनों को इन तय तिथियों पर यह कार्यक्रम आयोजित करना होता है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में इस परंपरा को कभी भी नहीं तोड़ा गया। यह सर्वाधिक आदरणीय और पुनीत कार्यक्रम माना जाता है। (अरुण आनंद, जानिए संघ को, प्रभात प्रकाशन, दिल्ली, 2017, पृष्ठ 41-51)

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *