वनवासी कल्याण आश्रम के अध्यक्ष जगदेव उरांव द्वारा जारी प्रेस विज्ञप्ति
नई दिल्ली. देश की केन्द्रीय उच्च शिक्षण संस्थाओं (विश्व विद्यालयों एवं उनसे सम्बद्ध महाविद्यालयों) में शैक्षणिक पदों एवं रिक्तियों में अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजातियों को देय संवैधानिक आरक्षण व्यवस्था पर अप्रैल 2017 में इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने इन समुदायों के हितों पर दूरगामी नकारात्मक प्रभाव डालने वाला एक निर्णय दिया. इसकी पुष्टि गत वर्ष उच्चतम न्यायालय ने भी कर दी. इस निर्णय पर केन्द्रीय मानव संसाधन मंत्रालय एवं विश्वविद्यालय अनुदान आयोग ने विशेष अनुमति याचिकाएं दायर की थीं, उन दोनों याचिकाओं को भी 22 जनवरी को उच्चतम न्यायालय ने खारिज कर दिया है. दोनों वर्गों को यह आरक्षण प्रारम्भिक भर्तियों एवं पदोन्नति में देय है. अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) को केवल प्रारम्भिक भर्तियों में ही 27 प्रतिशत आरक्षण देय है, पदोन्नति में नहीं.
इस निर्णय के अनुसार अब समूचे संस्थान को एक इकाई मानकर 200 सूत्रीय रोस्टर व्यवस्था के स्थान पर अलग-अलग विभागों को अलग-अलग इकाई मानकर 13 सूत्रीय रोस्टर व्यवस्था लागू की गई है. साथ ही प्रोफेसर, एसोसिएटेड प्रोफेसर व सहायक प्रोफेसर तीन श्रेणियों को भी अलग इकाई माना जाएगा. सरल शब्दों में कहा जाए तो 13 पद रिक्त हों तो जहाँ चौथी भर्ती पर 1 ओबीसी, 7वीं भर्ती पर 1 एससी. को लिया जाएगा. एसटी को आरक्षण में एक भी स्थान नहीं मिलेगा, उसका नंबर 14वीं भरती में आएगा. जबकि पुरानी व्यवस्था में 13 में से आधे अर्थात् 7 स्थान अनारक्षित वर्ग के लिए रखकर ओबीसी को 3, एससी को 2, एसटी को 1 स्थान आरक्षण में सुनिश्चित होता. यह सामाजिक न्याय प्रदत्त करने वाली सर्व समावेशी व्यवस्था है. सम्पूर्ण संस्थान को इकाई नहीं मानने से एसटी वर्ग के लिए उच्च शिक्षण संस्थाओं के अध्यापन वर्ग में रास्ता ही बंद हो जाएगा.
अभी केन्द्रीय उच्च शिक्षण संस्थाओं में पाँच से छह हज़ार पद रिक्त हैं. पुरानी आरक्षण व्यवस्था में जनजातियों को 350/400 स्थान मिलने निश्चित थे, नई व्यवस्था में उन्हें 25/30 स्थान भी नहीं मिलेंगे और भविष्य का रास्ता भी रूक जाएगा. इसी अनुपात में ओबीसी, एससी व दिव्यांगों को भी अपूरणीय क्षति होगी.
यह व्यवस्था अपने देश के सम्पूर्ण जनजाति समुदाय के लिये अन्यायकारी और संविधान में आरक्षण देने के प्रावधान करने की समता मूलक भावना के विरूद्ध रहे. हमें विदित हुआ है कि केन्द्र सरकार के पास इस अन्यायकारी निर्णय में से मार्ग निकालने के लिए एक प्रस्ताव/ड्राफ्ट/बिल गत कुछ महीनों से विचाराधीन है. हम केन्द्र सरकार से मांग करते हैं कि विषय की संवेदनशीलता, इसके सभी सम्भावित सामाजिक, राजनैतिक परिणामों को ध्यान में रखकर तत्काल अध्यादेश द्वारा जनजातियों को न्याय दिलाने की अपनी संवैधानिक जिम्मेदारी को पूरा करे और उच्च शिक्षण संस्थाओं में पूर्व की 200 सूत्रीय आरक्षण व्यवस्था को बहाल करे.
वनवासी कल्याण आश्रम राज्य सरकारों से भी मांग करती है कि राज्यों के राज्य पोषित उच्च शिक्षण संस्थानों में पुरानी व्यवस्था को बहाल करें. कल्याण आश्रम देश की सभी शासकीय सहायता प्राप्त तथा कथित अल्पसंख्यक शिक्षण संस्थाओं का भी आह्वान करती है कि यदि वे वास्तव में देश के पिछडे़ समुदायों एससी/एसटी को सामाजिक न्याय मिले, इसके पक्षधर हैं तो वे भी आगे बढ़कर अपने संस्थानों में इनका आरक्षण सुनिश्चित करें. उपरोक्त मांग को लेकर वनवासी कल्याण आश्रम का एक प्रतिनिधि मण्डल दिल्ली में राष्ट्रपति जी, केन्द्रीय गृहमंत्री जी, जनजाति कार्य मंत्री व राष्ट्रीय जनजाति आयोग से भी मिलने वाला है.
जगदेवराम उरांव
अध्यक्ष, अ.भा. वनवासी कल्याण आश्रम