मकर संक्रांति उत्सव

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रायपुर, 15 जनवरी 2018 को रायपुर महानगर का मकरसंक्रांति के उत्सव पर्व पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के परम पूज्यनीय सरसंघचालक डाॅ. मोहन भागवत जी ने उद्बोधन दिया। जो निम्नानुसार है-
आज के कार्यक्रम के प्रमुख अतिथि श्री मोहन सिंह जी टेकाम, माननीय क्षेत्र संघचालक श्री अषोक जी सोहनी, माननीय प्रांत संघचालक श्री बिसराराम जी यादव, रायपुर महानगर के माननीय संघचालक श्री उमेष अग्रवाल जी, उपस्थित अन्य अधिकारीगण, रायपुर के प्रत्येक बस्ती में जागरण का कार्य करने वाले तथा अन्य उपस्थित नागरिक सज्जन, माता-भगिनी एवं आत्मीय स्वयंसेवक बंधुओं- यह संक्रांति का पर्व है। बदल का पर्व है। क्रांति याने बदल, परिवर्तन और सं उसमें जुड़ता है, सम्यक इस अर्थ से। ऐसा विचार नहीं, जो सब कुछ ध्वस्त करने, कुछ नया अपरीक्षित, अस्थिर करने के लिए नहीं। ऐसी विचार क्रांति जो किसी को ध्वस्त नहीं करता, किसी को उजाड़ता नही, सबको प्रतिष्ठित करता है। सबको सुरक्षा देता है। ऐसा बदल हम सृष्टि में संक्रांति के दिन देखते है।
इस पर्व से दिन तिल-तिल बढ़ता है, हड्डियों तक कपकपी भरने वाली सर्दी कम होती है। मनुष्य में ऊर्जा का संचार करने वाली, कर्मषीलता को जगाने वाली गर्मी थोड़ी बढ़ने लगती है। धीरे-धीरे बढ़ती है। यह प्रकाष का पर्व है। कर्मषीलता का पर्व है। यह मकर संक्रांति का पर्व भारत में सर्वदूर अन्यान्य नामों से मनाते है। लोक भाषा में ऐसा कहा जाता है कि सूर्य मकर राषि में प्रवेष करता है। हम सब और विज्ञान भी मानते है कि सूर्य कहीं आता-जाता नही, परिवर्तन पृथ्वी का होता है। सूर्य तो स्थिर है। पृथ्वी चक्कर लगाती है, स्वतः के चारों ओर घूमती है और ऐसा घूमते-घूमते सूर्य के चारों ओर घूमती है। सूर्य के चारों ओर घूमते समय पूर्ण वृत्ताकार नहीं घूमती, थोड़ा सा लम्बा वृत्त खींचकर घूमती है और इसलिए ऋतु बनते है और ऋतुओं का परिवर्तन होता है। सामान्य समाज जो आंखों से देखता है, उस पर विष्वास करता है, जो सूर्य रोज पूर्व से पष्चिम की यात्रा करता है। सृष्टि के प्रारंभ से सूर्य नियमित कर रहा है, यह परिवर्तन आसान नहीं है। उसके कारण रात दिन में और दिन रात में परिवर्तित हो जाती है। कैसा होता है? सूरज के पास कौन से साधन है? कभी छुट्टी पर नही जाता? सूर्य का रथ है और एक ही चक्का है। सूर्य का वर्णन है और इसलिए एक सुभाषित में कहा है- रथस्य एकम् चक्रम्। सूर्य का रथ में एक नहीं चार नही ंतो सात घोडंे है और सात घोड़ों का नियंत्रण करना है और उसकी लगाम सांपों की है। और रथ चलाने वाला सारथी है। उसके पैर नहीं है। ऐसे रथ की सवारी सूर्य भगवान प्रतिदिन करते है। ‘‘क्रिया सिद्धि सत्वे भवति महताम् नोपकरणे‘‘ आपमंे दम कितना है, इस पर क्रियासिद्धी निर्भर करता है। परिस्थितियां आती है, जाती है। कोई बड़ा काम करना है तो उसके लायक बनो, स्वत्व का उपयोग सब करते है। स्वत्व का भान प्रत्येक जीव को होता है। स्वयं के लिए सुख प्राप्त करना, सिखाना नही पड़ता, दुःखी होना कोई नही चाहता। हम मनुष्य है, मनुष्यों को इतना दुर्बल बनाया प्रकृति ने। जन्मतः उसके ना दांत, ना नाखून, ना हिंस्र स्वभाव है। अगर प्रकृति ने जितना दिया है, उसके बल पर वह वैसा ही खड़ा रहा तो कुछ नही कर सकता। लेकिन मनुष्य के पास बुद्धि दी है, इसलिए वह राजा बनकर रहता है। बुद्धि है इसलिए उसका अहंकार भी होता है। इसलिए स्वत्व शब्द प्रचलित है। व्यक्ति के नाते समूह बनाकर चलना पड़ेगा। व्यक्ति के नाते समूह में रहने के लिए कुछ छोड़ना पड़ेगा। अंग्रेजी पुस्तक होमोसेेटीयन्स पुस्तक में मनुष्य जाति का अच्छा विष्लेषण है। मनुष्य की प्रकृति गुण के आधार पर है। मनुष्य जिस पर विष्वास रखता है। उसको एकत्रित करते है, ऐसा समूह बनाकर चलना हमारी सुरक्षा की पूंजी है। दूसरा नियम- नकली बात ज्यादा दिन तक नही चल सकती। और सत्य कभी मिट नही सकता। यह इतिहास सिद्ध है। तर्कसिद्ध तो है ही। उसी पुस्तक में उसने कहा- एक जमाना था। जब ऐसे लोगों को इकट्ठा करना, एक समाज बनाना, राष्ट्र बनाना राज्यों के आधार पर कर लिया गया। लेकिन राज्य एक कृत्रिम चीज है। वो बदलती भी है। इधर से उधर जाती भी है। सत्ता बदली की समूह भी बदला, ऐसा हो जाता है। इसलिए सत्ता की जो मुद्रा थी वह सुख के बाजार में चलना बंद हो गया। उसके बाद दूसरा आया उसको कहते है, रिलिजन। पंथ-संप्रदाय, पूजा-उपासना, रहन-सहन का तरीका। लेकिन आखिर रिलिजन के बारे में भी एक बात है, वह सबका एक हो ही नही सकता। क्योंकि रूचि सबकी अलग-अलग है। रिलिजन के बारे में सबसे प्राचिन भारत है। उसमें अनेक रिलिजन है। जो यही पर पैदा हुए, अनुभूति में से पैदा हुए। सब पंथ-संप्रदाय चल रहे है उनको देखते हुए एक बात ध्यान में आती है, जो संत-महात्मा कहते है। वो सबकी एकता की बात करते है। ‘‘जाकि रही भावना जैसी, प्रभु मूरत देखी तिन तैसी‘‘ उसको पाना लक्ष्य है। जैसे मंदाकिनी में स्नान करने से लोग मिट्टी लगाते है, उन्हें मिट्टी ही अच्छी लगती है। लोग बाथरूम में स्नान करने से साबुन का उपयोग करते है। वैसे ही धर्म पंथ संप्रदाय अलग-अलग होने के बावजूद भी हम एक है। यह स्वाभाविक है। हमारा ही रूप सही है, बाकी सब गलत है, यह सही नही है। आगे रिलिजन का मामला अधिक नही चला। क्योंकि मेरा ही सुनो यह नही चल सकता।
व्यापार एक साधन है, उसे उत्कृष्ट रूप से करना ही चाहिए लेकिन सारी मनुष्य जाति को बाजार से नही जोड़ सकता। क्योंकि बाजार में स्वार्थ होता है और हर एक का स्वार्थ अलग-अलग होता है। हमारा स्वत्व प्रत्येक का है। प्रत्येक व्यक्ति अपना स्वत्व लेकर चलता है और क्योंकि प्रकृति ने उसको स्वत्व दिया है, उसकी मान्यता होनी ही चाहिए, परंतु स्वत्व की सुरक्षा के लिए समूह बनाने पड़ते है। ऐसे समूह दुनिया में बने है और सामूहिक पहचान को उस समूह का, उस समाज का, उस देष का, उस राष्ट्र का स्वत्व माना जाता है। अब हम सब लोग यहां जो बैठे है, वो अपने समाज को अच्छा बनाना चाहते है, तो पहले हम विचार करें कि हमारा समाज याने कौन सा समाज? हमारे समाज का स्वत्व क्या है। एक तरह से स्वत्व याने चेहरा भी होता है। हम भारत के लोग है। यह तो बात पक्की है भी। सामुहिक रूप से उस देष का नागरिक अपने स्वत्व को मानता है। भारत नही रहेगा तो हम आप नही रह सकते। भारत को रहना पड़ेगा। भारत को एक रहना पड़ेगा। भारत की एकता, अखण्डता, एकात्मता के आड़ आने वाली कोई चीज हमारे सुख का कारण नही बनेगी, वो हमारे दुख का कारण बनेगा। अभी तक ऐसा होता आया है, इतिहास देख लिजिए जब तक हम भारत के नाते जी रहे थे। उद्यम करे रहे थे, अपने वैभव के लिए, अपनी सुरक्षा, प्रतिष्ठा के लिए लड़ रहे थे। भारत के नाते तब तक हमारी पराजय नही हुई। हमको लूटने, खसोटने के लिए देष की सीमाओं के अन्दर कोई प्रवेष नही कर सका और जिस दिन हमने अलग-अलग सोचना प्रारंभ किया, अपनों आपको अलग मानना प्रारंभ किया, अपने स्वार्थ को बाकी लोगों के स्वार्थ के ऊपर माना, देष के स्वार्थ के उपर माना तब हमारा देष टूटने लगा। सम्पूर्ण विष्व में पहले नंबर का देष आज कर्जा लेने वाला देष हो गया और जितने बार लम्बे इतिहास के दौरान हम लोगों ने भारत के नाते एक होकर अपनी स्वतंत्रता के लिए प्रयास किया तब हम जीत गए तो हम भारत है, लेकिन जब मैं कहता हूँ भारत का चेहरा कौन सा है, तब समस्या आती है। क्योंकि हम भारत है। याने क्या है? दुनिया में कोई बताता है हम इंग्लैण्ड है, याने क्या है, हम सब अंग्रेजी बोलने वाले लोग है। हम भारत है याने क्या है, एक भाषा नही बता सकते। कितनी भाषाएं है, बोलिया वगैरह मिलाये तो 3800 के ऊपर है, अरबस्थान में जाकर पूछेंगे तो आप लोग अरबा है याने क्या है? आपका चेहरा? हम तो इस्लाम के उपासक है। हमारे यहां तैंतीस करोड़ देवता पहले से है और नये-नये आते रहते है। सांई बाबा पहले नही थे, अब आ गये। संतोषी माता पहले नही थी, अब आ गयी। सत्यनारायण की पूजा 600 साल पुरानी है। बाहर के लोग भी आये, आक्रमक के नाते आये, उन्होंने कुछ लोगों को बना लिया अपना वो भी उपासना पद्धति हमारे यहां है, कोई पंथ उपासना संप्रदाय हमारा चेहरा नहीं हो सकता हम में से किसी वर्ग का चेहरा हो सकता है। लेकिन केवल उतना सा दुनिया की स्पर्धा में टीकेगा नहीं, सुख प्राप्त करा देगा नहीं, अगर अलग रहेंगे, लड़ते रहेंगे तो मार खायेंगे तो ये सुनिष्चित है। एक होने के लिए एक चेहरा कौन सा है? भाषा नही, पंथ संप्रदाय नही? खानपान रीतिरिवाज, रहन-सहन नही तो क्या हमारा कोई एक चेहरा है? भारत का कोई भारतीय स्वत्व है? जिस स्वत्व के आधार पर हम लोग एक रह सकते है और सारी दुनिया में श्रेय प्राप्त कर सकते है। सारी दुनिया को सुख भी दे सकते है। स्वयं भी सुख प्राप्त कर सकते है। सौभाग्य से यह चेहरा है, वो हमारी संस्कृति में व्यक्त होता है। अब संस्कृति कहने के बाद भी थोड़ा आपको सोचना पड़ेगा। मैं क्या कह रहा हूँ क्योंकि अपनी भाषा में जो बाते है। उसको हम भाषांतरित करके विदेषी भाषा में पढ़ते है फिर हमारे समाज में आती हैं और विदेषी भाषा में अपनी बातों के लिए, कई बातों के लिए शब्द नहीं है। संस्कृति कहने के बाद इसे अंग्रेजी में सोचते है कल्चर। कल्चर याने संस्कृति नही। कल्चर आता है कल्ट शब्द से। कल्ट याने विषिष्ट पद्धति, फैंषन। फैंषन आते जाते रहता है। ढीला-ढाला होता है। आदमी छोड़ नही सकता उसको। कल्ट श्रद्धा का विषय बन जाता है। संस्कृति का कल्ट से संबंध नहीं। आपक कपड़े कौन से पहने है, आप खानपान रीतिरिवाज क्या रखते है, आप कैसे घरों में रहते है। आपके रास्ते वगैरह कैसे बने है, आप गाना कौन सा गाते है, नृत्य कैसा करते है, यह सारी बाते सभ्यता में आती है। वो संस्कृति मूलक होती जरूर है। हर एक संस्कृति की सभ्यता उसके अपने ढंग की होती है। वह बात सही है। लेकिन सभ्यता और संस्कृति में अंतर है। संस्कृति संस्कार से आती है। सारे भारत में विविधता होने के बावजूद भाव एक है। सच्चा सुख तो अपने अंदर ही मिलता है। संतोष अंदर की चीज है। बाहर की चीजों से समाधान नहीं मिलेगा। थोड़ा बांटो तो सुख मिलेगा। यह भारत के किसी भी कोने में बसने वाला व्यक्ति चाहे वह निरक्षर हो वह भी आपको बता देगा। मांगने वाले व्यक्ति को खाली हाथ नही भेजना। यह हमारा संस्कार है। वह तर्क देता है कि उसे जरूरत है, इसलिए मांगने आया है। घर के बच्चों के द्वारा उसे दिया जाता है। पहले ऐसा अभ्यास कराते थे। सुख बांटने में है, सुख संतोष में है, ऐसा भाव बताने वाली संस्कृति हम सबकी समान है। सारी विविधता में एकता का साक्षात्कार मनुष्य जीवन का लक्ष्य है। वह हरि नाम की हाला पी लो। यह आदमी को मदमस्त करने वाले हाला पी के क्या सुख मिलेगा। किन्तु चलते है हमारे सर्वत्र यह भजन। सुदूर वनों में बसने वाले जिनके हमारे प्रमुख अतिथि महोदय ने कहा आदिवासी समाज। वहा से लेकर तो अत्यंत तत्वज्ञान की प्रकाष्ठा पायी जाती है, नासदीय सुक्त एक ही विचार है। एक ही संस्कार है। अनेक पंथ-संप्रदाय है, प्रारंभ बिन्दु उनका समान है, अंदर की सुख की खोज। दर्षन सब अलग-अलग है। भगवान के स्वरूप के बारे में मतभिन्नता है। भगवान है की नहीं इसके बारे में भी मतभिन्नता है। लेकिन सब खल करने के बाद अंत में निष्कर्ष पर आते है। और सामान्य समाज को बताते है कि ऐसा रहो, वो सबका एक है। सत्य अहिंसा अस्तेव अपरिग्रह ब्रह्मचर्य तप संतोष स्वाध्याय, शौच, ईष्वर प्रणेजान। यह यम नियमात्मक आचरण का धर्म सारे पंथा-संप्रदायों ने अपने-अपने शब्दों में समान बताया है। यह आज की बात नही है। यह इतिहास पूर्वकाल से अपने देष में ऐसे ही हो रहा है। विविधता थी, विविधता की मान्यता थी, विविधता को स्वीकार किया गया, विविधता का सम्मान किया गया। अपनी-अपनी विविधता सुरक्षित रह कर भी एक देष, एक राष्ट्र के नाते चलता आ रहा है। इसलिए भारत नाम आज भी चलता है। इसलिए हिन्दुस्थान नाम आज भी चलता है। भले ही दुनिया के विद्धवानों ने इसका और सबक्वाण्टीमेंट ऐसा कहने का प्रचार किया होगा। मानता कोई नही। भारत एक देष है। अपने राजनितिक स्वार्थ के लिए देष को ऐसा विभिन्न रूप में देखना और जनता को वैसे तैयार करने के लिए लोग प्रचार करते होंगे। लेकिन चलता नहीं जब बारी आती है तो अंदर की बात बाहर आ जाती है। अलगाव की बात से सुख नही मिलेगा। बांटने की बात कहां से चलती है? इसमें स्वार्थ रहता है, भेद रहता है, उसमे द्वेष रहता है, अनेक बातें रहती है, हमें उनसे लेना देना नही। जिन्हें करना है वह करें। हम नहीं करेंगे।
हम सबको जोड़ने वाली बातें कौन सी है। वह देखेंगे और जोड़ने वाली बाते है। भारत को जोड़ने वाली भारत की संस्कृति है। भारत को जोड़ने वाले भारत के पूर्वज है क्योंकि यह सब अलग-अलग चित्र आज दिखते है तो भी सबके पूर्वज एक है। यह भी विज्ञान कहता है, चालीस हजार वर्ष पूर्व से। अफगानिस्थान से वर्मा तक और तिब्बत से चीन की तरफ ढलाते श्रीलंका के दक्षिण तक जितना जन समूह रहता है। उतने जन समूह का डी.एन.ए. यह बता रहा है कि उनके पूर्वज समान है। यह हमको जोड़ने वाली बात है। आज हम एक दूसरे को भूल गए, रिष्ते-नाते भूल गए आपस में एक दूसरे का गला पकड़ कर झगड़ा भी कर रहे हैं। लेकिन वास्तविकता यह है कि हम एक ही घर के लोग है। हम समान पूर्वजों के वंषज है। और तीसरी बात है- ऐसा हम है और ऐसा हम बने और आज दुनिया में विष्वबंधुत्व की बात करने वाला बने और जैसी बात करते हैै, वैसा करने वाला कोई भी दूसरा देष नही है, एकमात्र देष भारत है। इसे विष्व के अनेक देष भी मानते है। उनका भारत पर विष्वास है। भारत से कभी दूसरों को डर नही लगा।
आदिवासी भोला है, ऐसा अतिथि महोदय ने कहा, बात सही है लेकिन उस भोलेपन में एक अच्छी बात है कि वो विष्वास रखता है, कैसे स्वभाव होता है, ध्रुवभट्ट नाम के एक लेखक है गुजरात में, उन्होंने अपना अनुभव लिखा है- वो जंगल घूमने गए थे, एक गांव के मुखिया के छोटे बच्चे को तेन्दुआ (चीता) पालने में से उठाकर ले गया। उठाकर ले गया याने बच्चे की षिकार हो गई, वो बच्चा मर गया। तो फारेस्ट के लोगों के साथ वे घूम रहे थे, लोग हालचाल पूछने उसके यहां गए। बेचारा छोटे बच्चे को तेन्दुआ उठाकर ले गया, बाते हो गई तो वो मुखिया कहता है। तेन्दुआ कभी ऐसा करता नहीं जरूर दो-तीन दिन से कुछ खाने के लिए नहीं मिला होगा। इसलिए मेरे बच्चे को उठा के ले गया। अपने बच्चे को उठा के ले जाने वाले तेन्दुआ के बारे भी उस मुखिया की धारणा क्या है? उस पर भी मजबूरी आ पड़ी होगी। यह भूखा रहा होगा। नही तो ऐसा करने वाला नही है। ये स्वभाव है हम आदिवासी कहते है। इसका मतलब ये हमारा मूल स्वभाव है। हम उन्हीं के वंषज है, समान पूर्वज है हमारे सब और अगर ये बात है, ये क्यो है? ये इसलिए है कि हमारी मातृभूमि ऐसी थी। उस जमाने में किसी को आना संभव नहीं था, पर्वतों को लांघ कर, सागर को पार करके। हम सुरक्षित थे और यहां हमारे लिए भरपूर था। जनसंख्या भी कम थी। न लड़ने की जरूरत थी और न किसी को जीतने की। हम उदार बन गए। बाहर से कोई आता था, हम कहते थे, आओ भैय्या आओ तुम भी खाओ। तुम भी अपना काम करों, पेट भर खाओं। भाषा तुम्हारी अलग-अलग है, हमारी पहले से अलग-अलग है। अनेक प्रकार की भाषा बोलने वाले अनेक धर्मों को मानने वाले है। वेदों में वर्णन है। इस पृथ्वी पर पृथ्वी राजा ने कृषि योग्य भूमि बनाई है। हमारा स्वत्व क्या है, हमारा स्वत्व है, हम भारत के है। हम इस संस्कृति को मानने वाले है, उन पूर्वजों के वंषज है जिन्होंने कभी दुनिया को विज्ञान दिया, वो भी गए देष-विदेष लेकिन दुनिया का उपकार क्या। हमकों सुख प्राप्त करके, वैभव प्राप्त करके फिर से अपने देष को ऐसा बनाना है, दुनिया का षिरमौर देष बनेगा। बल सम्पन्न, वैभव सम्पन्न परंतु किसी को डरायेगा नही। सारी दुनिया में सुख-शांति समाधान का नया पर्व शुरू करेगा। यह उद्यम हम करेंगे, तो हमारे लिए भी सुख है। दुनिया के लिए भी शांति समाधान है। देष सुखी होना है तो हम सब सुखी होते है। ये स्वत्व जो हमारा चेहरा है उसके पीछे ये स्वत्व है, सुभाषित कहता है कि उस स्वत्व को बलवान बनाओं, क्रियासिद्धी उसके बलबूते पर हो। क्रियासिद्धी साधन के बल बूते पर नही होती। स्वत्व बनाओ। मन को बुद्धि को ऐसा बनाओं जो सबको जोड़ने की बात करें। सम्पूर्ण देष के वैभव को चाहेगी, विविधिताओं को अपने देष की साज-सज्जा समझेगी। उसे स्वीकार करेगी, उसका सम्मान करेगी। उन सब के सुख के लिए प्रयास करेगी। सब के सुख के लिए अपने स्वार्थ को होमने में यत्किंचित भी देर नहीं लगेगी। यत्किंचित भी संकोच नहीं होगा। सम्पूर्ण अपनत्व के साथ अपने देष को एक-एक व्यक्तियों को देखने वाले स्वार्थ त्याग की पूर्ण तैयारी रखने वाला। सम्पूर्ण देष को ऐसा खड़ा करने के लिए सबको साथ लेकर चलना, सबको लेकर चलने वाला ऐसा व्यक्ति खड़ा करना पड़ेगा। गांव-गांव में, गली-गली में ऐसे लोग खड़े करने होंगे। उसके मन में हम कौन है, हमारा स्वत्व क्या है, हमारा अपना-अपना चेहरा है। लेकिन हम सबका मिलकर चेहरा कौन सा है, उस चेहरे की पीछे सत्य क्या है। स्वत्व क्या है? इसकी जानकारी होगी। तो सम्पूर्ण देष के लोग स्वार्थ का विचार न करते हुए सुख के लिए प्रयास करेंगे। आपस में भाई चारे की बात व्यवहार में आएगी। और परिस्थिति के तान-तनाव में भी इस एकता को अखण्ड रखकर देष के लिए उद्यम करेंगे। देष बनेगा तो हम बनेगा और देष बनेगा तो दुनिया बनेगी यह स्थिति है। दुनिया के पास दूसरा नहीं। लेकिन गौरक्षा क्यों? ग्राम विकास क्यों? जैविक खेती का आग्रह क्यों? क्यों हम चाहते है कि बिछुड़ गए सब लोग वापस आए घर में? क्यों हम चाहते है कि सम्पूर्ण समाज में किसी भी विविधिता को लेकर आपस भेद का विषमता का ऊँच-नीच का व्यवहार बिल्कुल भी न हो? क्योंकि ये सारी बातें हमारें स्वत्व को पोषक है। उस स्वत्व के पीछे जो सत्व है उसको मन में बनाने वाली है और उस स्वत्व के पीछे जो स्वत्व है सम्पूर्ण अस्तित्व की एकता का। उस सत्य को याने शाष्वत सुख को प्राप्त करा देने वाली बाते है और इसलिए ऐसे छोटे बड़े उपक्रमों के माध्यमों के द्वारा सक्रिय होकर समाज जागरण करना यह अपना काम है। यह करना चाहिए उसकी आवष्यकता है। परिस्थिति में कुछ भी दिखाई देता हो, सत्य की राह पर चलने वाले कभी अयषस्वी नहीं होते। यह सत्यमेव-जयते की भूमि है और इस लिए मन में आपस की एकता की स्मरण पूर्व समाज के प्रति आत्मीयता लेकर इस प्रकार का उद्यम करता है और उसकी शक्ति प्राप्त करता है तो संघ की शाखा की रोज की साधना है, वो करनी पड़ेगी। हमारे मातृ शक्ति के लिए राष्ट्र सेविका समिति की ऐसी साधना की व्यवस्था है। शाखा में जाकर एक घण्टा देष के लिए मैं योग्य बनूं। ‘विजेत्री च नः संहता कार्यषक्तिर‘ हम सबकी याने पूरे समाज की संगठित कार्य शक्ति को खड़ा करते हुए ‘विधायास्य धर्मस्य संरक्षणम्‘ यह जो हमारा धर्म है, हम सबका मिलकर जो धर्म है मानव धर्म, जिसको दुनिया कहती है, वहीं हमारा धर्म है उसका संरक्षण करते हुए ‘परम वैभवन् नेतुमेतत स्वराष्ट्रम्‘ अपने राष्ट्र को परम वैभव के षिखर तक ले जाने के लिए समर्था भवतु, हम समर्थ बनेंगे। हम समर्थ हो इस लिए वो साधना चलती है शाखा की। उस साधना को उत्कृष्ट रूप से करते हुए संघ और समिति की शाखा में हम सब लोग समाज हित में इस प्रकार के उपक्रमों में अपने-अपने स्थान पर जुड़ जाये, उत्साह से इस काम को प्रारंभ करें। गति से इसको करें रोज अपने समय का कुछ समय, अपनी रोज की कमाई की कुछ कमाई इसके लिए रख दे और उसका व्यय करें। तो देखते-देखते आने वाले कुछ वर्षों में दषक भी नहीं लगेंगे। कुछ वर्षों में सम्पूर्ण दुनिया के सुख-षांति के लिए उस दुनिया का पथ प्रदर्षन करने वाला परम वैभव सम्पन्न, बल सम्पन्न, समतायुक्त, शोषणमुक्त भारत वर्ष अपने सब विविधताओं को साथ लेकर सजे धजे स्वरूप में विष्व के गुरू सिंहासन पर बैठकर सम्पूर्ण विष्व का शासन प्रषासन करना है। इस प्रकार का चित्र अपने इस शरीर से, इन्हीं आँखों से, इसी देह से हम देखेंगे। ऐसा देखने का आप सबको मौका अपनी पुरूषार्थ से प्राप्त हो यह शुभकामना, आज इस संक्रांति पर्व पर आपको देता हूँ। आपका धन्यवाद करता हुआ अपने चार शब्द समाप्त करता हूँ।
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इस मकर संक्रांति उत्सव में प्रमुख अतिथि श्री मोहन सिंह टेकाम, सर्व आदिवासी समाज के उपाध्यक्ष ने अपने उद्बोधन में कहा कि- परमपूज्य भगवाध्वज,वंदे मातरम्। आज के कार्यक्रम के मुख्यवक्ता परमपूज्य डाॅ. मोहन भागवत जी एवं मंच पर विराजमान सभी संघ के अधिकारी पदाधिकारी, संघ कार्यकर्ता बंधुओं, इस कार्यक्रम में आए सभी भाईयों और बहनों,
मेरा सौभाग्य है कि- आज इस अवसर पर मुझे प्रमुख अतिथि के रूप में इस कार्यक्रम में बुलाया गया है। हम रानी दुर्गावती की संतान है। आज आदिवासी समाज को सजग होने का प्रयत्न हमारे द्वारा किया जा रहा है। आदिवासी समाज सदैव राष्ट्र के उन्नति के साथ रहा है। संघ आदिवासी समाज के उत्थान के लिए निरंतर क्रियाषील है।
 हमारा समाज के प्रति छत्तीसगढ़ अधिकतर बस्तर संभाग में नक्सलियों के द्वारा जबरन आदिवासी समाज को प्रताड़ित किया जा रहा है। उन भोले-भाले समाज को नक्सलियों द्वारा प्रताड़ित किया जा रहा है। उन्हें बचाने के लिए डाॅ. मोहन भागवत जी से निवेदन करूंगा की, नक्सलियों से शोषण से उन्हें बचाया जाय।
अंत में मैं अभारी हूँ कि इतने बड़े कार्यक्रम मुझे उपस्थित रहने का अवसर प्रदान किया गया। जय भारत। जय माँ भारती।
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इस अवसर पर कार्यक्रम में प्रमुख रूप से संघ के अखिल भारतीय सह सम्पर्क प्रमुख अरूण कुमार जी, अखिल भारतीय शारीरिक षिक्षण प्रमुख सुनील कुलकर्णी जी, अखिल भारतीय कार्यकारणी सदस्य हस्तीमल जी, क्षेत्र कार्यवाह माधव विद्वांस जी, क्षेत्र प्रचारक अरूण जैन जी, सह क्षेत्र प्रचारक दीपक जी, क्षेत्र प्रचारक प्रमुख षिवराम जी समदरिया, वरिष्ठ प्रचारक शांताराम जी सरांव तथा प्रांत प्रचारक श्री प्रेम शंकर जी उपस्थित थे।
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