लक्ष्मीबाई केलकर भारत के प्रसिद्ध समाज सुधारकों में से एक थीं। उन्होंने महिलाओं के उत्थान और राष्ट्र के प्रति गौरव बोध एवं दायित्व निर्माण के लिए ‘राष्ट्र सेविका समिति’ नामक संगठन की स्थापना की। लक्ष्मी बाई केलकर का मूल नाम कमल था, विवाहोपरांत उनको लक्ष्मी बाई नाम मिला किन्तु लोग आदरपूर्वक उन्हे “मौसी जी” कहते थे। उनका जन्म बंगाल के विभाजन के खिलाफ आंदोलन के दिनों में जुलाई, 1905 को नागपुर में हुआ था। उस समय कौन जानता था कि साधारण सी दिखने वाली यह लड़की भविष्य में नारी जागरण का इतना बड़ा संगठन खड़ा करेगी, जो विश्व में हिंदू गौरव को बढ़ाएगा
महिला परिवार और राष्ट्र के लिए प्रेरक शक्ति है। जब तक यह बल नहीं जागता, समाज प्रगति नहीं कर सकता है”
-लक्ष्मीबाई केलकर, राष्ट्र सेविका समिति की संस्थापिका
यद्यपि राष्ट्र सेविका समिति को संघ की “महिला इकाई ” के रूप में माना जाता है, किन्तु समिति हमेशा संघ की विचारधारा से प्रेरित महिलाओं की विशिष्ट आवश्यकताओं पर केन्द्रित एक स्वतंत्र समानांतर और संगठन रही है।
लक्ष्मीबाई केलकर ने इस संगठन की स्थापना अश्विन शुक्ल पक्ष, दशमी (विजयादशमी) 1993 विक्रम संवत तदनुसार 25 अक्टूबर, 1936 ई को की थी ।
यह संगठन संघ संस्थापक पूज्य डॉ के.बी. हेगड़ेवार की सलाह पर श्रीमती केलकर द्वारा एक स्वतंत्र महिला संगठन के रूप में शुरू किया गया।
राष्ट्र सेविका समिति, भारतीय संस्कृति और परंपराओं को बनाए रखने के लिए काम करने वाला विश्व का सबसे बड़ा हिंदू महिला संगठन है।
राष्ट्र सेविका समिति देश भर में स्थित 5,216 केंद्रों के माध्यम से संचालित होती है। इसकी सक्रिय सदस्यता दस लाख के आसपास तक है।
समिति अपने विभिन्न केन्द्रों पर सक्रिय शाखाओं का आयोजन करती है, जहाँ छात्राओं को योग, गायन, नृत्य, सांस्कृतिक मूल्य सिखाए जाते हैं और सैन्य प्रशिक्षण भी दिया जाता है।
राष्ट्र सेविका समिति गरीबों और वंचितों के लिए आत्मनिर्भर साधन प्रदान करने के लिए 475 सेवा परियोजनाएं भी चलाती है।
राष्ट्र सेविका समिति समाज में सकारात्मक सामाजिक सुधार के लिए हिंदू महिलाओं की नेता और अभिकर्ता के रूप में भूमिका विकसित करने पर ध्यान केंद्रित करती है।
लक्ष्मीबाई का जन्म हिन्दू पंचांग के अनुसार आषाढ़ शुक्ल पक्ष, दशमी ,1962, विक्रम संवत तदनुसार ग्रेगेरीयन कलेंडर के जुलाई 1905 ईस्वी में महाराष्ट्र के नागपुर जिले के महल नामक स्थान पर हुआ था। बचपन में उनका नाम कमल रखा गया था। उनके पिता भास्कर राव दाते, एक सरकारी नौकर और माता यशोदाबाई एक गृहिणी थीं ।उन दिनों ब्रिटिश शासन में, किसी सरकारी कर्मचारी के लिए लोकमान्य तिलक द्वारा संपादित’केसरी’ जैसे साहित्य की खरीद और अध्ययन को देशद्रोही कार्य के रूप में देखा जाता था। लेकिन कमल की माँ तिलक साहित्य खरीदती और सभी महिलाओं को संयुक्त रूप से पढ़ने के लिए बुलाती थी। इस प्रकार लक्ष्मीबाई का मातृभूमि के प्रति गहरा प्रेम, क्षमता, निडरता की भावना का विकास उनके माता-पिता से हुआ। एक बच्ची के रूप में, हिंदू किंवदंतियों के गीतों, अनुष्ठानों और कहानियों ने उनके युवा मस्तिष्क पर एक अमिट छाप छोड़ी। वह मंदिर जाना पसंद करती थी । उन्हे ‘मिशन स्कूल’ में भर्ती कराया गया , क्योंकि उसके घर के पास उपलब्ध वही एकमात्र बालिका विद्यालय था। लेकिन वह इस बात से परेशान हो जाती थी कि प्रार्थना की दिनचर्या में हिंदू देवी-देवता शामिल नहीं थे और यद्यपि उन्होने इससे सामंजस्य स्थापित करने की कोशिश की, लेकिन अंततः अपनी प्राथमिक शिक्षा के बाद उन्होने पुनः हिन्दू मान्यताओं के अनुसार अपनी पूजा अर्चना आरंभ कर दी । वह छोटी उम्र में भी बहादुर और स्पष्टवादी थी और लड़कों के खेल के साथ-साथ अपनी गुड़िया के साथ भी खेल खेलती थी। उन्होंने छोटे-छोटे विवादों से दूर रहकर खेलों का नेतृत्व किया और अपने दोस्तों को बिना किसी पूर्वाग्रह के निष्पक्ष रूप से खेलने का निर्देश दिया। अपनी मां को हर दिन दूसरी महिलाओं के साथ केसरी पढ़ने की बात सुनकर कमल में धीरे-धीरे देशभक्ति और ब्रिटिश शासन के खिलाफ आक्रोश बढ़ने लगा।
प्रारंभिक वर्षों में गाय संरक्षण अभियान और प्लेग नियंत्रण मे सहयोग
जब महाराष्ट्र में गायों को वध से बचाने का अभियान चल रहा था, तो युवा कमल ने मंदिर के पुजारी और दाई ’(नानी) के साथ इस पवित्र धर्मयुद्ध में भाग लिया। इस अभियान ने उन्हें भाषण की शक्ति, विनम्रता का मूल्य और अपमान और किसी पवित्र कार्य को करते समय नकारात्मकता को सहन करने और संघर्ष करने की क्षमता सिखाई। महाराष्ट्र मे प्लेग महामारी के प्रकोप के समय में उन्होने बिना किसी भेदभाव रोगग्रस्त और पीड़ितों की सेवा करने में अपने माता-पिता और दाई की सहायता की। उनके पिता बहुत ही समाजसेवी प्रकृति के व्यक्ति थे और उन्होंने प्लेग पीड़ितों का अंतिम संस्कार भी किया था, जिन्हें दूसरे लोग छूने तक से मना कर दिया करते थे । इन सभी अनुभवों ने उन्हे धीरज और धैर्य के मूल्यों को सिखाया।
वर्धा के एक प्रसिद्ध अधिवक्ता पुरुषोत्तम राव से उनका विवाह हुआ । परंपरा के अनुसार, उनका नाम बदलकर लक्ष्मी कर दिया गया। चूंकि उनका परिवार एक विशाल खेतिहर और संपत्ति वाला संयुक्त परिवार था, इसलिए कई बैरिस्टर और सामाजिक सुधारक आते जाते रहते थे और समय समय पर देशभक्ति की बातों की चर्चा होती रहती थी , इन सब चीजों ने उनमें देशभक्ति की लौ जगाए रखी। उन्हें महिला समकक्षों द्वारा संपर्क सभाओं में भाग लेने के लिए आमंत्रित किया जाने लगा। वह असाधारण नेतृत्व गुणों से संपन्न महिला थीं इसलिए उन्होंने अपने समय को तुच्छ कार्यों में बर्बाद करने के बजाय इन सभाओं में रचनात्मक और सकारात्मक कार्यों के लिए सलाह देना शुरू कर दिया। धीरे-धीरे अन्य महिलाओं में भी एक बदलाव लाया और वे भी समाचार पत्रों और पत्रिकाओं को पढ़ने और उन पर चर्चा करने लगीं।
वर्धा- गतिविधि का केंद्र
लोकमान्य तिलक के दुखद निधन के बाद, महात्मा गांधी ने साबरमती को छोड़ दिया और वर्धा को अपने आश्रम के रूप में चुना। वर्धा के सेवाग्राम में देश भर के स्वतंत्रता सेनानियों के रूप में राजनीतिक गतिविधियों का केंद्र बन गया। इन सब घटनाओं से प्रेरित होकर लक्ष्मीबाई की देशभक्ति की भावनाएँ और प्रबल हो गई और उन्होंने अपनी देवरानियों और जेठानियों को स्वतंत्रता संग्राम में शामिल होने के लिए प्रेरित किया। उन्होंने इस पवित्र काम के लिए अपने आभूषण भी दान कर दिया । दुर्भाग्य से उसके पति को तपेदिक का संक्रमण हो गया जो कि उन दिनों एक भयानक और असाध्य बीमारी हुआ करती थी और सभी प्रयासों और प्रार्थनाओं के बावजूद वह बच नहीं सके और वह मात्र सत्ताईस वर्ष की उम्र में ही विधवा हो गई । उनकी बड़ी बेटी की भी बीमारी से मौत हो गई। अपने दुःख को अलग करते हुए, उन्होंने घर का प्रबंधन संभाला और वित्तीय मामलों को नियंत्रण में किया।
मौसीजी ने विभिन्न स्वास्थ्य चिकित्सकों और डॉक्टरों से परामर्श करके महिलाओं की आवश्यकताओं के अनुरूप स्वास्थ्य कार्यक्रम को तैयार किया जिसमें योगासन, सूर्य नमस्कार शामिल थे। प्रार्थना सभाओं के लिए भारतीय इतिहास कि महान महिलाओं की प्रेरक कहानियों को संकलित किया गया । इस उद्देश्य के लिए उन्होंने महिलाओं के शारीरिक और मानसिक विकास के विशेषज्ञ मार्गदर्शन और प्रशिक्षण के लिए एक संगठन “स्त्रीजीवन विकास परिषद” का गठन किया और सेविकाओं को संबोधित करने के लिए कई प्रतिष्ठित व्यक्तित्वों और डॉक्टरों को आमंत्रित किया। उन्होंने मराठी में एक पत्रिका ‘सेविका’ का प्रकाशन शुरू किया जो अब ‘राष्ट्र सेविका’ के रूप में कई भाषाओं में प्रकाशित होती है। उन्होंने भारत की गौरवशाली संस्कृति के आधार पर महिलाओं की शिक्षा को पुनर्गठित करने के लिए महिलाओं की प्राकृतिक प्रतिभा और भारतीय श्रीविद्या निकेतन को विकसित करने के लिए व्यावसायिक पाठ्यक्रमों, प्रशिक्षण कार्यक्रमों और अल्पकालिक पाठ्यक्रमों के साथ गृहिणी विद्यालय की स्थापना की। उन्होंने देवी शक्ति की आराधना का सिलसिला शुरू किया जिसमें आठ भुजाओं वाली कमल, भगवद गीता, भगवा ध्वज, अग्नि कुंड, घंटी, तलवार और मोतियों के साथ क्रमशः नारी शक्ति का प्रतिनिधित्व किया गया और मूर्तियों को विभिन्न कंदराओं में स्थापित किया गया। उन्होंने महिलाओं की संगीत और भक्ति प्रतिभाओं को प्रोत्साहित करने के लिए भजन मंडलियों का गठन किया और उन्हें रानी लक्ष्मीबाई और जीजामाता जैसी महान महिलाओं की कविताओं के रूप में रचना करने के लिए प्रेरित किया। उन्होंने शिवाजी के संघर्ष, स्वामी विवेकानंद के स्पष्ट आह्वान जैसे प्रेरणादायक विषयों पर प्रदर्शनियाँ लगाई और कलाकारों को अपने चित्रों के माध्यम से सामाजिक पुनर्जागरण और जनता के उत्थान में योगदान देने के लिए आमंत्रित किया। उन्होंने महान महिला नेताओं की शताब्दी मनाई और हर बैठक में वंदे मातरम का पाठ कर मातृभूमि का सम्मान करने की परंपरा शुरू की। उन्होंने नागपुर में देवी अहिल्या मंदिर, वर्धा में अष्टभुजा मंदिर और कई अन्य मंदिरों का निर्माण किया।
जैसे-जैसे समय बीतता गया, उनके द्वारा ग्रामीण और वनवासी पुनर्वास जैसी कई अन्य गतिविधियों को अपने कार्यों में सम्मिलित करने की योजना बनाई गई। उन्होंने अगस्त 1978 तक लगातार सेविकाओं को प्रेरित किया जब उन्हे दिल का दौरा पड़ा और उन्हे आईसीयू में ले जाया गया। जैसे ही उनके स्वास्थ्य मे सुधार होना शुरू हुआ और नागपुर अस्पताल में भारत के सभी राज्यों से उनके हजारों अनुयायियों का तांता लग गया ।कई राज्यों से आई सेविकाओं की भाषा को समझने में असमर्थ होने के बावजूद, उनके बीच आत्मीय-प्रेम बिना शब्दों के व्यक्त होने के लिए पर्याप्त था। इसी बीच शीघ्र ही एक और हृदयाघात पड़ने से अंततः कार्तिक (मार्गशीर्ष) कृष्ण पक्ष द्वादशी २०३५ विक्रम संवत (27 नवंबर 1978) को उनका देहावसान हो गया। अंबाझरी घाट के रास्ते में स्थित श्री शक्ति पीठ मे उनके पार्थिव शरीर थोड़ी देर के लिए में रखा गया था, जिसे अब उनके स्मारक में बदल दिया गया है।