एक महान विचारक, समाज सुधारक, लेखक, दार्शनिक, संपादक और क्रांतिकारी – ज्योतिरादित्य गोविंदराव फुले


ज्योतिराव गोविंदराव फुले 19 वीं सदी में महाराष्ट्र के समाज सुधारकों में एक खास स्थान रखते हैं। एक तरफ जहां अन्य समाज सुधारकों ने महिलाओं की स्थिति और अधिकार पर विशेष जोर देने के साथ परिवार और सामाजिक संस्थाओं के सुधार पर ध्यान केंद्रित किया। वहीं ज्योतिबा फुले ने प्रचलित जाति व्यवस्था के खिलाफ आवाज उठाई। इस दौरान अनेक सामाजिक और राजनीतिक विचारकों ने सामाजिक, आर्थिक, शैक्षणिक और राजनीतिक रूप से महिलाओं की स्थिति के उत्थान के उद्देश्य से आंदोलनों की शुरू किए। इन सामाजिक-राजनीतिक विचारकों में महात्मा फुले, महात्मा गांधी, डॉ बी.आर. अंबेडकर, राजा राम मोहन राय, ईश्वर चन्द्र विद्यासागर, और इस तरह के अन्य संगठित आंदोलनों ने हाशिए पर मौजू जातियों, पिछड़े वर्गों और महिलाओं के लिए समानता का प्रयास किया।

महात्मा फुले इस तरह के सुधारों की आवाज उठाने वाले शुरूआती सुधारकों में से एक थे। उन्होंने स्त्री-पुरूष असमानता का कड़ा विरोध किया। उनका विचार था कि प्रत्येक व्यक्ति को सत्य की खोज करनी चाहिए और व्यक्तिपरक सत्य का पुनर्निर्माण करना चाहिए, तभी मानव समाज खुशहाल बन सकता है। उन्होंने कई मामलों में ब्रिटिश शासन की आर्थिक नीति की आलोचना की क्योंकि यह गरीब किसानों के प्रतिकूल था। उन्होंने कृषि क्षेत्र की स्थितियों में सुधार के लिए कई समाधान सुझाए। शोषक भारतीय सामाजिक व्यवस्था के स्थान पर फुले समानता के सिद्धांत पर स्थापित समाज की स्थापना करना चाहते थे।

मुख्य बिंदु

• छत्रपति शिवाजी उनके लिए प्रेरणा स्रोत थे। फुले जाति व्यवस्था के समानता और उन्मूलन के सिद्धांतों पर स्थापित समाज की स्थापना करना चाहते थे।
• फुले मानव समानता और अधिकारों के पहले समर्थकों में से एक थे। वह मनुष्य के अधिकारों के प्रति असीम उत्साह रखते थे जो जीवन के अंत तक उनके लेखन का एक प्रमुख विषय और कार्य रहा था।
• वह पहले समाज सुधारक थे, जो दलितों, किसानों के उत्थान और महिलाओं की शिक्षा के समर्थक थे। उन्होंने समाज सुधार के नए युग की शुरूआत की। उन्होंने कई संस्थानों की स्थापना की और जीवन भर मनुष्य द्वारा बनाई गई असमानता को दूर करने का प्रयास किया।
• फुले के विचार और दर्शन उनके व्यक्तिगत अनुभवों और ब्रिटिश राज के साम्राज्यवादी सांस्कृतिक मिशन के अनुरूप थे। इस अर्थ में उनका दर्शन पुनर्निर्माणकर्ता का था और भारतीय सामाजिक परिवेश की पुनर्व्याख्या पर आधारित था। वे महर्षि शिंदे, डॉ.बाबासाहेब अम्बेडकर, गाडगेबाबा और साहू महाराज के प्रेरणा स्रोत थे।
• वे कई आंदोलनों के संस्थापक थे-

  1. महिला शिक्षा में भेदभाव के खिलाफ आंदोलन।
    2.किसान आंदोलन
    3.अंधविश्वास के खिलाफ आंदोलन।

-वे एक प्रखर लेखक थे और उन्होंने अपने मिशन और विजन का प्रचार करने के लिए कई किताबें लिखीं। -उन्होंने लड़कियों और विधवा महिलाओं और उनके बच्चों के लिए स्कूल और अनाथालय खोले।

जीवन परिचय

ज्योतिराव गोविंदराव फुले का जन्म 11 अप्रैल 1827 को महाराष्ट्र के सतारा जिले में हुआ था।उनके पिता, गोविंदराव पूना में एक सब्जी विक्रेता थे। ज्योतिराव का परिवार ‘माली’ जाति का था और उनका टाइटल ‘गोरही’ था। मालियों को नीच जाति का माना जाता था और उन्हें सामाजिक रूप से बहिष्कृत रखा जाता था। ज्योतिराव के पिता और चाचा फूल का काम करते करते थे, इसलिए परिवार को `फुले ‘के नाम से जाना जाने लगा। फुले के पिता, गोविंदराव, अपने भाइयों के साथ परिवार के फूल का व्यवसाय करते थे। ज्योतिराव फुले जब केवल नौ महीने के थे तो उनकी मां, चिम्नाबाई की मृत्यु हो गई। उनका एक बड़ा भाई भी था।

माली समुदाय के लोग ज्यादा शिक्षा नहीं प्राप्त कर पाते थे। इसी परंपरा के तहत लिखने और अंकगणित की मूल बातें प्राथमिक विद्यालय से सीख कर, फुले ने स्कूल छोड़ दिया।
इसके बाद वह फूल की दुकान और खेती का काम करने लगे। ज्योतिराव काफी कुशाग्र बुद्धि के थे लेकिन घर में आर्थिक स्थिति खराब होने के कारण, उन्हें कम उम्र में ही पढ़ाई छोड़नी पड़ी और पिता की मदद करना शुरू कर दिया।

वर्ष 1841 में ज्योतिराव ने पूना में स्कॉटिश मिशन के हाई स्कूल, दाखिला मिल गया और 1847 में वहां से अपनी शिक्षा पूरी की। वहां उनकी मुलाकात एक ब्राह्मण सदाशिव बल्लाल गोवंदे से हुई, जो जीवन भर उनके करीबी दोस्त रहे। उस समय के रिवाज के अनुसार, अपने पिता द्वारा चुनी गई, अपने ही समुदाय की एक लड़की से 13 साल की उम्र में उनकी शादी हो गई।

सामाजिक कार्य
फुले उस सामाजिक व्यवस्था को बदलने में भी विश्वास करते थे जिसमें लोगों को जानबूझकर दूसरों पर निर्भर बना गया था। जिसका उद्देश्य अशिक्षित, अज्ञानी और गरीबों पर का शोषण करना था। उनका अटूट विश्वास था कि शोषण का आर्थिक ढांचा जब तक खत्म नहीं होगा तो केवल सलाह, शिक्षा और जीवन के वैकल्पिक तरीके पर्याप्त नहीं होंगे।
उनकी सबसे प्रसिद्ध कविता में लिखा है शिक्षा की कमी से ज्ञान की कमी होती है, जिसके कारण नैतिकता की कमी होती है, जिसके कारण प्रगति की कमी होती है, जिसके कारण धन की कमी होती है, जो निम्न वर्गों के उत्पीड़न की ओर ले जाता है , जिस राज्य में शिक्षा की कमी हो होती हैं उसकी सामिजिक स्थिति आप खुद देख सकते हैं।

सत्यशोधक समाज
24 सितंबर 1873 को फुले ने सत्यशोधक समाज (सत्य के शोधकों का समाज) का गठन किया जिसके वह अध्यक्ष और कोषाध्यक्ष थे। जाति व्यवस्था की निंदा की। सत्यशोधक समाज ने तर्कसंगत सोच के प्रसार के लिए अभियान चलाया।
1890 में फुले की मृत्यु के बाद उनके अनुयायियों ने महाराष्ट्र के सुदूर हिस्सों में सामाजिक सुधार के अभियान को जारी रखा। कोल्हापुर के शासक शाहू महाराज ने सत्यशोधक समाज को नैतिक समर्थन दिया। अपने नए अवतार में, इसने अंधविश्वास को दूर करने के प्रयासों को जारी रखा ।

आजीविका का साधन
एक सामाजिक कार्यकर्ता के अलावा, फुले एक व्यापारी भी थे। 1882 की एक डायरी में उन्होंने खुद को एक व्यापारी, कृषक और नगर ठेकेदार के रूप में बताया है।फुले को 1876 में तत्कालीन पूना नगरपालिका के लिए आयुक्त नियुक्त किया गया था और 1883 तक वह इस पद पर रहे।
सम्मान
फुले को 11 मई 1888 को बंबई के एक अन्य समाज सुधारक विट्ठलराव कृष्णजी वांडेकर द्वारा महात्मा की उपाधि से सम्मानित किया गया।
फुले को महाराष्ट्र के साथ-साथ भारत के अन्य हिस्सों में भी कई बार याद किया गया। जयपुर विश्वविद्यालय, पुणे के संग्राहलय और सब्जी बाजारों का नाम उनके नाम पर रखा गया है।

प्रकाशित कार्य

फुले की उल्लेखनीय प्रकाशित रचनाएं हैं:
तृतीया रत्न, 1855
ब्राह्मंच कसाब, 1869
पोवाड़ा: छत्रपति शिवाजीराज भोंसले यंचा, (अंग्रेजी: शिवाजी का जीवन, काव्य में) जून 1869
पोवाड़ा: विद्याभक्तिल ब्राह्मण पंतोजी, जून 1869
मानव महामंद (मुहम्मद) (अभंग)
गुलामगिरी, 1873
षट्कारायच आसुद (कल्टीवेटर व्हिपकॉर्ड) जुलाई 1881
सत्सार अंक 1 जून 1885
सत्सार अंक 2 अक्टूबर 1885
ईशारा, अक्टूबर 1885
ग्रामज्योश्य सम्भंदी जहीर कभर (1886)
सत्यशोधक समाजोत्कट मंगलाष्टक सर्व पूजाविधि 1887
सर्वजन सत्य धर्म पुस्तक, अप्रैल 1889
सर्वज्ञ सत्य धर्मपुस्तक
अखण्डादि काव्याचारं
अस्प्रशनांचि कैफियत
महात्मा फुले
मौत
1888 में ज्योतिबो को आघात लगा और उन्हें लकवा मार गया। 28
संदर्भ-

Rajni Bala & Navjoti (2012) “Mahatma Jyoti Rao Phule: A Forgotten Liberator” in International Journal of Basic And Advanced Research, 2012; 1(2); 35
Equality: Contribution of Jyotiba Phule (1827-1890)” in Modern Indian Political Thought, p.27
Jyotirao Phule quoted in Sharanabasappa B. Ragi , Jyoti. S. Bamman (2011) , Mahatma Phule and Women’s Emancipation International Referred Research Journal,June,p.113.
Sharanabasappa. B. Ragi , Jyoti. S. Bamman (2011) , Mahatma Phule and Women’s Emancipation International Referred Research Journal,June,p.114.
Jyotirao Phule (1883) Shetkaryaca Asud translated by Gail Omvedt and Bharat Patankar http://www.ambedkar.org/gail/Phule.pdf

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