उर्बरा सर्वतो भूमि: मध्यतो नर्मदा नदी।
विज्ञा दुर्गावती राग्यि गढ़ राज्ये त्रयोगुण:।।
(गढ़ा राज्य में हर जगह उपजाऊ कृषि भूमि है इसमें नर्मदा नदी बहती है और इस पर विद्वान रानी दुर्गावती का शासन है, जिनका क्षेत्र उपलब्धियों से भरा है)। – कवि केशव दीक्षित, गढ़ेश नृप वर्णसंग्रह
- वीरांगना दुर्गावती का जन्म 05 अक्टूबर,1524 को कालिंजर दुर्ग (वर्तमान में जिला बांदा) में महाराजा कीर्ति सिंह चंदेल के यहां हुआ था। दुर्गाष्टमी के दिन जन्म होने के कारण उनका नाम दुर्गावती पड़ा। बाल्यावस्था से ही बुद्धिमान और साहसी दुर्गावती भाला, तलवार, धनुष-बाण चलाने व तैराकी में प्रवीण थीं। 1540 में दुर्गावती का विवाह गढ़ा-कटंग के महाराजा संग्राम सिंह के पुत्र दलपत शाह से हुआ था। 1544 में रानी ने वीरनारायण नामक पुत्र को जन्म दिया। 1548 में राजा दलपत शाह की मृत्यु के पश्चात वीरनारायण का राज्याभिषेक हुआ और रानी दुर्गावती ने राज्य की बागडोर संभाली, उस समय उनकी आयु केवल 25 वर्ष थी। गढ़ा-कटंग राज्य में 52 गढ़ थे। 25 वर्षीय दु:खी विधवा के लिए जीवन का यह पड़ाव कठिन रहा होगा, क्योंकि दुर्गावती को शासन करने का कोई अनुभव नहीं था। लेकिन उन्होंने अपनी जिम्मेदारी को समझा और स्वयं को तैयार किया। रानी दुर्गावती का शासन सही मायनों में उस दिन शुरू हुआ जब पांच वर्षीय बेटे वीर नारायण को गढ़ा/गढ़ा कटंग का नया राजा नियुक्त किया गया। रानी दुर्गावती संरक्षिका के रूप में दृढ़तापूर्वक शासिका के रूप में स्थापित हुईं।
गढ़ा कटंग – अबुल फज़ल ने अकबरनामा में गढ़ा कटंग का विवरण दिया है कि यह एक विस्तृत पथ है और किलों से भरा है और इसमें घनी आबादी वाले शहर और कस्बे हैं। गढ़ा राज्य काफी बड़ा था, जिसमें 43 गढ़ या किले वाले जिले शामिल थे, जिनमें से प्रत्येक में 350-700 गाँव शामिल थे। गढ़ा में 70,000 बसे हुए गाँव थे। किले वाले जिले या तो सीधे रानी द्वारा या अधीनस्थ सामंती प्रभुओं (जागीरदारों) और कनिष्ठ राजाओं के माध्यम से नियंत्रित प्रशासनिक इकाइयाँ थीं। इसकी प्रशासनिक संरचना गैर-वनवासी राज्यों की तुलना में काफी अधिक संघीय थी। दुर्गावती के पास 23,000 खेती वाले गाँव थे, जिनमें से 11,000 सीधे नियंत्रण में थे। शेष 12,000 को स्थानीय सरदारों द्वारा प्रशासित किया जाता था।
घूंघट प्रथा का विरोध – मुगलों से प्रभावित रानी के देवर चन्द्र सिंह ने घूंघट रखने के लिये कहा तो उन्होंने स्पष्ट मना करते हुए कहा कि ‘‘गोंड कबसे पर्दा डालने लगे? यह प्रथा किसी के लिये ठीक नहीं है।’’
सैन्य शक्ति – रानी की सेना में 20000 घुड़सवार तथा एक हजार हाथी दल के साथ-साथ बड़ी संख्या में पैदल सेना थी।सहायिका रामचेरी के नेतृत्व में ‘नारी वाहिनी’ का भी गठन किया गया था अर्थात् उनकी सेना में युवतियां भी तैनात थीं। गढ़ा-कटंग राज्य का क्षेत्रफल उत्तर में नरसिंहपुर, दक्षिण में बस्तर छत्तीसगढ़, पूर्व में संभलपुर (उडि़सा) एवं पश्चिम में वर्धा (महाराष्ट्र) तक फैला था . गढ़ा-कटंग राज्य को गढ़ा मण्डला भी कहा जाता था।
बाजबहादुर को हराया – रानी दुर्गावती के पति राजा दलपतशाह के निधन के पश्चात जिन शत्रुओं ने रानी के राज्य पर गिद्ध-दृष्टि डाली, उनमें मालवा का मंडलिक राजा बाजबहादुर भी सम्मिलित था। रानी ने बाजबहादुर के आक्रमण का बड़ी बहादुरी से सामना किया और निर्णायक रूप से पराजित किया। बाजबहादुर को रानी ने तीन बार पराजित किया था।
रानी के समक्ष अकबर का प्रस्ताव – अकबर की कुदृष्टि रानी दुगार्वती पर पड़ी। एक महिला का शासक होने की बात उसे हजम नहीं हुई। वह रानी के राज्य पर आक्रमण की योजना में जुट गया। अकबर ने प्रस्ताव रखा कि यदि वह युद्ध से बचना चाहती है तो अपने सफेद हाथी (सरमन) और अपने विश्वासपात्र मंत्री आधार सिंह को यथाशीघ्र उसे सौंप दे।
अकबर के प्रस्ताव को ठुकराया, आशफ खां को धूल चटाई – रानी दुर्गावती द्वारा प्रस्ताव निर्भीकतापूर्वकअस्वीकार करने के पश्चात अकबर ने उनके राज्य गढ़ा पर आक्रमण के लिए आशफ खां को सेना के साथ भेजा। रानी ने आशफ को युद्ध मैदान में धूल चटा दी, उसे प्राण बचाकर भागना पड़ा। युद्ध में तीन हजार मुगल सैनिक मारे गये। 23 जून, 1564 को आशफ खां ने दोगुनी ताकत से रानी दुर्गावती के राज्य पर पुन: आक्रमण किया। रानी दुर्गावती ने जबलपुर के पास नरई नाला के किनारे शत्रु का जोरदार प्रतिकार किया। रानी दुर्गावती के सैनिकों ने मुगलों को गाजर-मूली की तरह काटा। रानी जिधर जातीं, उधर शत्रु की लाशें बिछा देती थीं। वह दोनों हाथों से तलवार चलाना जानती थीं।
रानी की वीरता – युद्ध के दौरान 24 जून को रानी दुर्गावती वीरता से लड़ रही थीं, तभी अचानक एक तीर उनके एक हाथ में आकर लगा। रानी तनिक भी विचलित नही हुईं और उन्होंने तीर शीघ्र ही निकाल कर फेंक दिया। तीर के लगने और तीर निकालने में जितनी देरी हुई, उसका लाभ शत्रु पक्ष ने उठाया। रानी संभल पातीं कि इतने में ही एक और तीर उनकी आँख में लग गया। रानी दुर्गावती ने बड़ी वीरता और धैर्य का परिचय देते हुए उसे भी निकाल दिया, पर कहा जाता है कि उस तीर की नोंक आँख में ही धंसी रह गयी।
आत्म सम्मान में भोंक लीं कटार – रानी अभी इस आघात से संभल भी नहीं पायी थीं कि इतने में ही तीसरा तीर उनकी गर्दन में आकर लगा। रानी ने अंत समय निकट जानकर वजीर आधारसिंह से आग्रह किया कि वह अपनी तलवार से उनकी गर्दन काट दे, पर वह इसके लिए तैयार नहीं हुआ। अत: रानी नेअपनी कटार स्वयं ही अपने पेट में भोंककर अपनी अस्मिता की रक्षा कर आत्म बलिदान किया।
रानी दुर्गावती का बलिदान – बरेला नामक स्थान पर हुए इस एतिहासिक युद्ध में जनजातीय रानी दुर्गावती ने जीते जी मुगलों को सत्ता तक नहीं पहुंचने दिया। 40 वर्ष की आयु में 24 जून, 1564 को जबलपुर के पास बरेला स्थित नरई नाला के समीप बारहा की पहाड़ी की तलहटी मंडला मार्ग पर आशफ खां से युद्ध करते हुए उन्होंने अपना बलिदान कर दिया था। इस युद्ध में 3000 मुगल सैनिक मारे गये थे। मातृभूमि की रक्षा में मुगलों से लड़ते-लड़ते रानी दुर्गावती ने नारी अस्मिता का अमिट इतिहास रच दिया। रानी दुर्गावती के वीगरति के बाद पुत्र वीरनारायण ने मुगलों से लोहा लिया, लेकिन सेना के अभाव में टिक न सके। आशफ खां से से लड़ते-लड़ते उन्होंने भी अपना सर्वश्रेष्ठ बलिदानकरदिया।
रानी दुर्गावती की समाधि – जबलपुर से कुछ किलोमीटर दूर बरेला गाँव में श्वेत पत्थरों से रानी दुर्गावती की समाधि बनी हुई है। वीरांगना दुर्गावती ने भारतीय अस्मिता के लिये मुगलों से युद्ध में आर-पार की लड़ाई लड़ी, कभी समझौता नहीं किया। बलिदान स्थल बरेला में उनकी समाधि बनी है, जहां लाखों लोग जाकर अपने श्रद्धासुमन अर्पित करते हैं। जबलपुर में इस जनजाति रानी दुर्गावती के नाम से विश्वविद्यालय है। भारत सरकार ने 24 जून, 1988 कोरानी दुर्गावती के बलिदान दिवस पर एक डाक टिकट जारी किया था। जबलपुर में स्थित संग्रहालय का नाम भी रानी दुर्गावती के नाम पर रखा गया। साथ ही अनेक महाविद्यालयों और भवनों को भी रानी दुर्गावती के नाम पर रखा गया है।
समकालीन कवि संत तुलसीदास ने लिखा है :
गोंड गवार नृपाल महि, जवन महामहिपाल।
साम न दाम, न भेद कछु, केवल दण्ड कराल।।