सनातनी समाज की तीन धारायें वन, ग्राम और नगरीय समाज

भारतीय परंपरा, चिंतन और जीवन का विकास प्रकृति के अनुरूप है । वैदिक धारणा के अनुसार यदि संपूर्ण वसुन्धरा के निवासी एक कुटुम्ब हैं तो कोई अलग कैसे हो सकता है ? जिस प्रकार एक शरीर के अनेक अंग होते हैं उसी प्रकार समाज जीवन के तीन अंग हैं वन ग्राम और नगर । सनातन परंपरा में जीवन की व्यवस्था चाक्रिक रही है । चतुर्थ आश्रम के पुरूषार्थ व्यवस्था इसके अंतर्गत जीवन की तीन चौथाई आयु वनो में । आरंभिक शिक्षा का आश्रम ब्रह्मचर्य वन में, वानप्रस्थ और सन्यासा का सीधा संबंध वन से, केवल ग्रहस्थ आश्रम है जो नगर या ग्राम में । अर्थात भारतीय जीवन शैली समरस, एक रूप और एक दूसरे की पूरक रही है । जिसे योजना पूर्वक खंडित करने का प्रयत्न हुआ । उनकी घोषित नीति थी “बाँटो और राज्य करो” इसके अंतर्गत अंग्रेजों ने भारतीय समाज को बाँटा । वन्य समाज को शेष समाज से बाँटने के तीन कारण थे । एक तो वन्य संपदा, दूसरा वन वासियों का भोलापन तीसरा वनों में अंग्रेजों का प्रतिरोध । इसलिये ईसाई मिशनरियाँ योजना के अंतर्गत वनों में भेजी गयीं । इसके लिये पहले कलकत्ता, मुम्बई और मद्रास के चर्च से सर्वे किया और फिर मेक्समूलर और मैकाले जैसे अंग्रेज कूटनीतिज्ञ सक्रिय हुये । अंग्रेजों को कच्चा मिल चाहिए था । भारतीय वनों के भूगर्भ में छिपा काला सोना और खनिज पदार्थ ने यूरोप में औद्योगिक क्रांति हुई जिससे उन्हें सम्पूर्ण वैभव मिला । चर्च को अंग्रेजों पर वनवासियों के प्रत्यक्ष हमलों का भी अनुभव था । वनवासियों ने कभी किसी भी विदेशी आक्रांता को पसंद नहीं किया । भारत पर सिकन्दर के आक्रमण से लेकर अंग्रेजों तक जनजाति वीरों का एक गौरव मय अध्याय है । अंग्रेजों ने इससे भयभीत होकर अलगाव के बीज बोये । यह सब भी इस अवसर पर समझना आवश्यक है।
भारत पर अपना औपनिवेशिक प्रभुत्व स्थापित कर लेने के बाद ब्रिटिश ने चौतरफा काम किया । वे जान गये थे कि इस राष्ट्र की जीवंतता संजीवनी शक्ति इसकी संस्कृति के गर्भ में है और इसकी संवाहक है यहां का धार्मिक साहित्य और गुरूकुल शिक्षण पद्धति है वनों से जुड़ी है । सभी शिक्षा, चिकित्सा और कला के केन्द्र वनों में ही हुआ करते थे । जिससे संपूर्ण भारत में राष्ट्रीय, सामाजिक, शैक्षणिक और वाणिज्यिक ऊर्जा संवाहित होती थी । वनवासियों को शेष समाज से काटकर भारतवासियों की इस चेतना शक्ति को सदा के लिए नष्ट करने का षड़यंत्र किया गया। अपने साम्राज्य के अधीन उपनिवेश बनाये रखने की अपनी दूरगामी कूट्नीतिक योजना के तहत भारतीय संस्कृति पर हमला करने हेतु सर्वप्रथम भारतीय साहित्य को निशाना बनाया गया उनमें कुछ प्रसंग जोड़े गये कुछ हटाये गये और अंग्रेजी-शिक्षण पद्धति को माध्यम बनाया गया । इस योजना के अन्तर्गत मैक्समूलर ने 9 लाख रुपये में 25 वर्ष लगाकर ऋगवेद का भाष्य तैयार किया जिसमें शब्दों के अर्थ अपने अनुसार निकाले । अंग्रेजों के इस षडयंत्र को भारतीयों की अध्यात्मिक ज्ञान पिपासा उस समय नहीं पहचान सकी। जबकि मैक्समूलर ने वेदों को मात्र 3 हजार वर्ष पुराना ही बताया और यहीं से अंग्रेजों की भारतीय दर्शन के विरोध में कुटिल नीति का प्रारम्भ दिखाईड देता है।
 
अब प्रश्न यह है कि मैक्समूलर वास्तव में वेदों और हिन्दू धर्म शास्त्रों का प्रशंसक होने के कारण वेदों, उपनिषदों, दर्शनों आदि के उदात्त, प्रेरणादायक और आध्यात्मिक चिंतन को अंग्रेजी माध्यम से विश्वभर में फैलाना चाहता था या वह 1857 के राष्ट्रव्यापी स्वतंत्रता संग्राम से घबराये अंग्रेजों की योजना का भाग था। सोचने वाली बात है कि आखिर ईस्ट इंडिया कंपनी ने अंग्रेजी और संस्कृत दोनों ही भाषाओं की जानकारी मे आधे-अधुरे, चौबीस वर्षीय, अनुभवहीन गैर-ब्रिटिश, जर्मन युवक मैक्समूलर को ही वेदभाष्य के लिए क्यों चुना ?
तत्कालीन घटनाओं को सूत्रबद्ध किया जाये तो बहुत कुछ समझ में आ जाएगा। वस्तुतः मेक्समूलर को बढ़ावा देना मैकाले की दीर्घकालीन व्यूहरचना का भाग था। 2 फरवरी 1835 को ब्रिटिश संसद में मैकाले ने कहा –
“मैंने सम्पूर्ण भारत का भ्रमण किया … चोर और भिखारी नहीं पाया … इतनी सम्पदा… इतने उच्चनैतिक आदर्श … उच्च योग्यता… मैं नहीं समझता कि हम कभी इसे जीत पाऐंगे जब तक कि इसके मूल आधार को ही नष्ट न कर दें जो कि इस देश की आध्यात्मिक और सांस्कृतिक धरोहर है और इसीलिए मैं प्रस्तावित करता हूँ कि हम उसकी प्राचीन और पुरानी शिक्षा पद्धति और उनकी इस संस्कृति को बदल दें … तो वे अपना स्वाभिमान एवं भारतीय संस्कृति को खो देंगे और वे वैसे ही हो जायेंगे जैसा कि हम चाहते हैं, पूरी तरह एक पराधीन राष्ट्र !”
हम सभी जानते ही हैं कि अंग्रेज प्रशासकों ने इस नीति का शक्ति और जालसाजी के साथ अनुपालन किया। भारतीय गुरूकूल व्यवस्था नष्ट करने के लिये विश्वविद्यालयों का पंजीयन कराने के आदेश निकाले। फिर विद्यालयों के साथ भी यही किया। शिक्षा का सरकारीकरण और अंग्रेजी की अनिवार्यता से आज संस्कृतिशून्य काले अंग्रेज मैकाले बनाने में सफल रहा है। एक ईसाई पादरी ने भी लिखा कि प्रत्येक ईसाई मिशनरी यह निश्चित तौर पर जानते हैं कि भारत में मिशन स्कूलों का एक निश्चित उद्‌देश्य क्या है ! वे जानते हैं कि भारत में मिशन स्कूलों का कार्य लड़के और लड़कियों को जीजस क्राइस्ट की ओर ले जाने का है !
पाश्चात्य इतिहासकारों ने षड़यंत्र पूर्वक प्रचारित करना शुरू किया कि चूंकि मोहन जोदड़ो के पुरातत्व अवशेष पांच हजार साल पुराने हैं, अतः निश्चित ही वे वेद पूर्व सभ्यता के लोग रहे होंगे, जिन्हें बाहर से आये आर्य लोगों ने नष्ट कर दिया या पराजित कर जंगलों में भगा दिया और उनके शहरों पर स्वयं कब्जा कर लिया। मोहन जोदडों की जानकारी नहीं मिली होती तो आज भी 3 हजार वर्ष ही कह रहे होते।
 
इसका उद्देश्य साफ़ था, यह दर्शाना कि जैसे हम अंग्रेज बाहर से आये हैं, भारत वासी भी बाहरी ही हैं। यहाँ के निवासी तो घन घोर जंगलों में रहने वाले ही हैं, जिन्हें बाहर से आये आर्य आक्रान्ताओं ने खदेड़ कर वनवासी बना दिया। उसी कूटिल मानसिकता के साथ वनवासी जनजाति समाज को नाम दिया गया – आदिवासी! अर्थात वे ही भारत के मूल वासी हैं, शेष लोग तो आक्रमणकारी आर्यों की संतान हैं, जो बाहर से आये हुए विदेशी हैं। जैसे हम विदेशी, वैसे ही वनों में रहने वाले जनजातियों के अतिरिक्त हर भारत वासी भी विदेशी। यह देश नहीं धर्मशाला है, लोग आते गए और यहाँ पर बसते गए।
 
किन्तु ज्यूं ज्यूं मोहन जोदड़ो पर शोध आगे बढ़ा, इस मिथ्या धारणा की हवा निकलना शुरू हो गया।  मोहन जोदड़ो से प्राप्त शिव फलक में स्पष्ट रूप से सिन्धु घाटी की लिपि में ही वेदों के नामों का स्पष्ट उल्लेख प्राप्त हुआ और पश्चिमी विद्वानों की मनघणंत, कपोल कल्पित धारणाओं की मिटटी पलीत हो गई। अर्थात यह सिद्ध हो गया कि वेद पांच हजार साल से भी अधिक प्राचीन हैं। और साथ ही यह भी कि आर्य और मोहनजोदड़ो सभ्यता अलग अलग नहीं हैं, जिस प्रकार आज हमारे यहाँ अनेक भाषायें हैं, उस समय भी थीं। कुछ संस्कृत बोलते थे, कुछ सिन्धु घाटी सभ्यता की द्रविड़ पूर्व (प्रोटो द्रविड़ीयन) भाषा।
 
पहले मध्य प्रदेश की राज्य सरकार ने और अब वर्तमान केन्द्र की मोदी सरकार ने जनजाति गौरव दिवस 15 नवम्बर की घोषणा की है। भारत के संविधान में जिसको जनजाति (Schdule tribes ) कहा गया है उसको कुछ लोग आदिवासी कह रहे हैं तो कुछ मूलनिवासी। आज आवश्यक है ऐतिहासिक तथ्योंको ठीक से जानने और समझने की जरूरी है।
आदिवासी दिवस नाम पर कुचक्र
यूरोपियन नरसंहारो को छुपाने का षड़यंत्र की सच्चाई यह है कि 1492 में कोलम्बस के अमरीका पहुंचने के बाद वहां के मूल निवासी “रेड इंडियन” पर गोरी चमड़ी वालों ने अकथनीय अत्याचार किए । उन्हें गुलाम बनाया, वे खरीदे बेचे गए । लेकिन इस सबके बावजूद कुछ संगठनों द्वारा 1992 में कोलम्बस के अमरीका में आने के 500 वर्ष पूर्ण होने के उपलक्ष्य में वहाँ एक बड़ा जश्न मनाने की तैयारी की गई । यह अमेरिका के इंडिजिनस लोगो के जले पर नमक छिड़कने जैसा था, अतः स्वाभाविक ही इस आयोजन का विरोध किया गया।
उसके बाद 1994 से 9 अगस्त को आदिवासी दिवस अथवा “ट्राइबल डे” अथवा मूलनिवासी दिवस मनाने की शुरूआत हुई। इसका लक्ष्य था ऐसे प्रदेश या देश के मूल वासियों को उनके अधिकार दिलाना जिन्हें अपने ही देश में दूसरे दर्जे की नागरिकता प्राप्त हो।
 
सरल शब्दों में आक्रांताओं द्वारा उनपर किए गए अत्याचारों के कारण उनकी दयनीय स्थिति में सुधार लाने के कदम उठाना। जरा विचार कीजिए कि भारत में तो ऐसी स्थिति कुछ है नहीं, फिर यहाँ 9 अगस्त जैसा अमेरिकावासी लोगों के नरसंहार को छुपाने वाले दिवस मनाने का क्या औचित्य है ? लेकिन भारत को टुकडे टुकडे देखने की इच्छा रखने वाले लोग कहाँ मानने वाले हैं। मैकाले के ये मानस पुत्र अलगाववाद को हवा देने में जुटे हुए हैं, उससे सावधान रहने की जरूरत है।
पहले पहचानें इस षड़यंत्रकारी दिवस का मूल इतिहास और समझकर समझायें जनजातीय जन मन को… 9 अगस्त 1610 का दिन जिसे अमेरिका का प्लासी युद्ध भी कहते हैं। 09 अगस्त 1610 में इंग्लंड (ऐंग्लो – पोवहाटन) और वहाँ के इंडिजिनस के बीच हुए सबसे पहले रेड इंडियन और यूरोपियन के बीच युद्ध की बरसी को जान बूझ कर चुना गया विश्व इंडिजिनस दिवस … सन 1492 को काफ़ी प्रयासों, स्पेन व पूर्तगाल के राजाओं के मना करने के बाद भी, यात्रा ख़र्च के लिए कैथोलिक मिशन की मदद से, इंडिया के व्यापार मार्ग खोजने के मक़सद से निकला कोलंबस, ग़लती से अमेरिका के पूर्वी तट पर जा पहुँचा …
 
उस वक़्त समस्त अमेरिकी महाद्वीप पर मुख्यतः पाँच इंडिजिनस समाजों का आधिपत्य था : Cherokee, Chickasaw, Choctaw, muscogee व Seminole। जिन लोगों को कोलंबस ने देखा, स्वयं को भारत पहूंचा मानकर उन्हें इंडीअन समझा और लाल होने के कारण रेड इंडियन कहा। आक्टोबर के दूसरे सोमवार का दिन था। 1492 को कोलंबस भारत के नए समुद्री मार्ग की तलाश में स्पेन के राजा और चर्च की आर्थिक मदद से समुद्री यात्रा पर निकला। उसकी ये खोज 12 ऑक्टोबर 1492 को एक तट पर जाकर समाप्त हुई जिसे उसने भारत समझा, कुल चार voyages (यात्राएं) 1492,1493,1498 व 1502 तक स्पेन, पूर्तगाल व अंग्रेजो ने अपनी कोलोनियों की पूरी रूप रेखा बना ली थी ।
 
इतना विशाल देश होने के कारण अग्रेजों को लगभग 1600 ई. तक सुदूर इलाक़ों में संघर्ष होते रहे, सबसे पहला दो तरफ़ा युद्ध अंग्रेज़ों को आज के वर्जिन्या प्रांत में पवहाटन इंडिजिनस लोगों से करना पड़ा, इन तीन युद्ध की श्रंखला में पहला युद्ध 09 अगस्त को हुआ, जिसने पूरे पोवहाटन क़ाबिले के लोग लड़ते हुए मारे गए, इसे भारत के संदर्भ में 1757 के प्लासी के युद्ध से तुलना कर सकते हैं, जो मात्र 6 घण्टे में ही युद्ध से लेकर संधि तक में सिमटा है। जिस हार ने अंग्रेज़ों को वहाँ के इंडिजिनस को पूरी तरह ख़त्म करने या ग़ुलाम बनाने का रास्ता खोल दिया।
फिर भी लगभग 250 वर्षों के नेटिव के साथ युद्ध और नर संहार के बाद अधिक सफलतआ नहीं मिली। तब मिशनरीयो के द्वारा मुफ़्त शिक्षा व इलाज के नाम पर उनसे सह सम्बंध बनाए गए. और बड़ीं संख्या में सिविलाईज किया गया। उन्ही को अपनी सेना में भर्ती कर आपस में ही लड़ाकर मारने के षड़यंत्र किया गया।
 
1763 तक सर जेफ़्री आमर्स्ट , जो ब्रिटिश सेना प्रमुख थे , विश्व के पहले रासायनिक युध के द्वारा (छोटी चेचक, टी बी, कालरा, टाइफ़ॉईड आदि), कम्मल,रुमाल व कपड़ों में मिलाकर 80 % लोगों को ख़त्म कर दिया गया। 1775 तक अंग्रेजो ने अपना आधिपत्य स्थापित कर लिया था  व उनकी 13 कोलोनियों पर पूरी तरह हुकूमत थी।
कोलंबस के आने के लगभग 250 वर्षों में इंडिजिनस लोगों का  रक्त पात करके भी वे केवल थोड़े भू भाग पर ही क़ाबिज़ थे। तभी जोर्ज वाशिंगटन व हेनरी नोक़्स के नेतृत्व में पहला ब्रिटिश अमेरिकी युद्ध प्रारम्भ हुआ। सफलता अमेरिका को मिली व पेरिस की संधि के तहत कोलोनी अमेरिका को मिली। मगर और भू भागो पर क़ब्ज़ा करके उसे आपस में बाँटने की भी संधि हुई । Indian removal ऐक्ट 1830 के तहत, सभी जो ज़बरदस्ती मिसिसिपी नदी के उस पर धकेला गया, 30000 लोग रास्ते में मर गये, यह घटना ” The trail of tears” आँसुओं की रेखा कहलाती है। तब सिर्फ़ 5 % इंडिजिनस आबादी ही बची थी।
 
12 ऑक्टोबर 1992 को जब कोलंबस के आने के 500 वर्ष पूरे हुए तब, उत्सवों के विरोध में कोलंबस ” get lost ” कैंपैन चलाया गया। अपराध बोध से इस दिन को अमेरिका का “ indigenous people day” घोषित किया गया। संयुक्त राष्ट्र संगठन (UNO) को  विश्व इंडिजिनस दिवस भी इसी दिन मनाया जाना था, मगर अमेरिका में विरोध और प्रथम ब्रिटेन और पोवहाटन युद्ध में ब्रिटेन की सत्ता विर्जीनिया प्रांत में स्थापित होने, वहाँ ईसाई धर्म प्रचार की शुरुआत को यादगार बनाने के लिए, संयुक्त राष्ट्र में गुप्त षड्यंत्र के तहत, 9 अगस्त तय किया गया। जिस दिन कहने को वर्किंग ग्रूप की 1994 की पहली बैठक का हवाला दिया गया, जो की झूठ है, वास्तव में इस विषय पर बैठक 1977 से शुरू हुई थी।
 
आज 32 करोड़ अमेरिकी में अंतिम बचे या पूरी तरह ख़त्म हो चुके 52 लाख इंडिजिनस के, पुरखो की याद में 9 अगस्त को, ब्रिटेन द्वारा पोवहाटन युद्ध की विजय का जश्न, पूरा विश्व, एक रेस द्वारा पूरे विश्व में विजय के रूप में “विश्व इंडिजिनस दिवस“ के रूप में मनाता हैं। क्यों 09 अगस्त को ही चुना गया, विश्व इंडिजिनस दिवस जो विदेशी अवधारणा पर आधारित है
और जनजातिगौरवदिवस कैसे होगा स्थापित जो भारतीय जनजाति वीरों की गौरव गाथावों पर आधारित हो…? क्या  प्रयत्न? क्या होगा समाधान?कोई और अपने भारतीय जनजाति दिनों की अपेक्षा, धीरे धीरे 09 अगस्त सर्वस्व समझ लेना क्या जाता है ? क्या हमें अग्रेजों द्वारा बिरसा मुंडा या जनजाती वीरों को अंग्रेज़ों द्वारा मारे जाने का कोई आक्रोश बचा नहीं है ? 
अभिनन्दन जनजाति गौरव दिवस
जनजाति गौरव दिवस 15 नवम्बर पर अवकाश घोषित होने पर जो कि भारतीय जनजातीय जननायक बिरसा मुण्ड़ा  ‘धरती आबा’ की जयन्ती पर है। शिवराज सिंह सरकार, मध्यप्रदेश और केन्द्र की नरेन्द्र मोदी सरकार को जनजाति समाज द्वारा, उसके सामाजिक, धार्मिकएवं राजनैतिक नेतृत्व को  धन्यवाद ज्ञापित करना चाहिये और कहना चाहिये कि जनजाति समाज को अमेरिकन नरसंहार दिवस से मुक्ति दिलाई है। जो औपनिवेशिक मानसिकता का परिचायक था। विदेशी दासता से वर्षों तक संघर्ष करने वाले जनजातीय नायकों पर अब बड़ी धूमधाम से उत्सव मनाया जायेगा। जनजाति गौरव समाज,  वनवासी (ST) समाज की चर्चा तो हमें 365 दिन ही करते हैं और करेंगे। पर यह 9 अगस्त का दिन तो हमें निम्न कारणों से छोड़ना चाहिय। 9 अगस्त विश्व इंडिजिनस दिवस का भारत की जनजाति, वनवासी, मूलनिवासी इतिहास, परम्परा से कभी भी कोई सम्बन्ध नहीं रहा है। यूरोपियन चर्च और सत्ता ने मिलकर करोड़ो अमरिकन इंडिजिनस का नरसंहार किया और हम इसको उत्सव स्वरूप कहकर क्यों मना रहे हैं…!
हम पूरी तरह से अंग्रेजों, वामपंथी कहानीकारो और चर्च के षड़यंत्रों में फँसकर यूरोप के द्वारा अमरिका के इंडिजिनस लोगों के नरसंहार पर प्रसन्न कैसे हो सकते हैं? विश्व इंडिजिनीयस दिवस जिसका सम्बन्ध 8 करोड़ मूल अमेरिकन लोगों के नरसंहार को छुपाने वाले षड़यंत्र मात्र से है भारत से नहीं..!
हमारे तो जनजाति गौरव समाज में बहुत से नायक हैं, भीमा नायक, टंटिंया भील, गुण्डर ध्रुव, वीर बुद्धु भगत, राजा शंकर शाह, रघुनाथ शाह, गढ़ मण्डला रानी दुर्गावति, तिलका माझी, वीर नारायण सिंह(सोनाखान), रानी अवन्ती बाई, झलकारी बाई की असंख्य मालिका है। इन में से किसी का भी इससे सम्बन्ध नहीं है तो जिस दिवस या दिन से भारतीय जनजाति महानायकों का सम्बन्ध हो उस दिवस को मनाने का यह समय बहुत परिश्रम और बहु प्रतिक्षा दोनों के बाद अब आया है। जनजाति गौरव दिवस 15 नवम्बर पर सरकारी अवकाश घोषित हुआ है। भारतीय जनजातीय जननायक बिरसा मुण्ड़ा  ‘धरती आबा’ की जयन्ती को स्मरण करते हुये समस्त जनजाति वीरो की गौरव गाथाओं का पुन: पुन: स्मरण करना चाहिये।
स्वतंत्रता के 75 वे वर्ष में पूरा देश अमृत महोत्सव मना रहा है। ऐसे महत्वपूर्ण समय में आया यह निर्णय जनजाति समाज में स्वत्व,  स्वाभिमान और स्वराज हित में बलिदान हुये सैकडो ज्ञात और सैकडो अज्ञात वीरों के प्रति सम्मान से भर जायेगा। समाज में उत्पन्न उत्साह जीवन के सम्पूर्ण विकास, समान और समानता के द्वार खोलेगा। नवचैतन्य आयेगा और अन्तिम पायदान पर खड़ा व्यक्ति सशक्त होगा तो देश आगे बढ़ेगा ऐसा विश्वास का प्रतीक जनजाति गौरव दिवस 15 नवम्बर को धरती आबा बिरसा मुण्ड़ा के जन्म जयन्ती पर मनाया जा रहा है। भगवान बिरसा का अल्प आयु 25 वर्ष का जीवन सतत साधना, अध्ययन, त्याग, संगठन और संघर्ष का परिचायक है। जनजाति समाज को चर्च के कुचक्र से निकालने का प्रतीक है। जनजातीय हित में स्वयं के बलिदान का प्रतीक है। स्वयं देश के प्रधानमन्त्री भोपाल आकर इस पर्व में सहभागी होने जा रहे हैं। जन -मन के स्वाभिमान को जगाने वाले इस पर्व पर आपका अभिनन्दन है और सम्पूर्ण जनजातीय समाज को बधाई है।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *