डॉ. मनमोहन वैद्य
सह सरकार्यवाह, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ
अयोध्या में श्रीराम मंदिर निर्माण कार्य का नेत्रदीपक शुभारम्भ करोड़ों भारतीयों और दुनिया भर में भारतीय मूल के लोगों ने गौरवपूर्वक देखा. जहां एक ओर कई सदियों के संघर्ष और सभी बाधाओं को पार कर करोड़ों भारतवासियों का स्वप्न साकार हो रहा था, वहीं दूसरी ओर भारत में सेक्युलरवाद (सेक्युलरिज़्म) के नाम पर सांप्रदायिक (कम्युनल) राजनीती करने वाले राजनेता और देश विभाजनकारी गतिविधि की दुकान चलाने वाले बुद्धिजीवी-पत्रकार बहुत चिंतित होते दिखे.
सांप्रदायिक राजनीति करने वाले कई सेक्युलर राजनेताओं ने तो बदलते हुए भारतीय जन-मानस को भांप कर राम मंदिर संदर्भ में अपनी भूमिका ही बदल डाली, क्योंकि आने वाले चुनावों में जनता का सामना करना पड़ सकता है. परन्तु, सेक्युलरवाद की आड़ में भारत-विभाजन की दुकानदारी करने वाले बुद्धिजीवी-पत्रकार एक नया राग अलापते दिख रहे हैं – “भारतीय संविधान खतरे में है, क्योंकि सेक्युलरिज़्म खतरे में है.” इस कथन से वे ऐसा भ्रम निर्मित करने का प्रयास कर रहे हैं कि मानो यह सेक्युलरवाद भारतीय संविधान का प्राण है जो आरम्भ ही से संविधान का अभिन्न अंग था. यह वैसा ही हुआ, जैसे टांगे के घोड़े को किसी का समझाना कि वह मुंह में लगाम लेकर ही पैदा हुआ था.
खुद को संविधान का हितैषी बताने वाले इन बुद्धिजीवियों का दावा है कि संविधान के साथ बहुत बड़ा धोखा (fraud) हो रहा है. वास्तव में सेक्युलर शब्द का संविधान में समावेश ही संविधान के साथ हुआ सबसे बड़ा धोखा था. ऐसा नहीं है कि हमारे संविधान निर्माता सेक्युलरवाद से परिचित नहीं थे. श्री के.टी. शाह के नए भारत को ‘सेक्युलर-सोशलिस्ट-रिपब्लिक’ कह कर वर्णित करने के सुझाव पर संविधान सभा में खूब चर्चा हुई थी, और डॉ. आम्बेडकर और अन्य अनेक मूर्धन्य नेताओं, सबका यह सुविचारित मत रहा कि भारत के लिए ‘सेक्युलरवाद’ आवश्यक नहीं है (it was found unnecessary). यूरोप के १००० वर्षों के पोप के मज़हबी राज्य (थिओक्रैटिक स्टेट) की प्रतिक्रिया के रूप में वहां सेक्युलरवाद की आवश्यकता सामने आई और उसे वहां लाया गया. वैसी स्थिति भारत के हजारों वर्षों के इतिहास में न कभी रही और हमारे अध्यात्म-आधारित एकात्म और सर्वांगीण हिन्दू चिंतन के चलते संविधान निर्माताओं को भविष्य में भी ऐसी सम्भावना नहीं दिखी.
सन् १९७६ में, जब देश में ‘इमरजेंसी’ लागू की गई, जनतांत्रिक जीवन ठप्प था और संसद में विपक्ष अनुपस्थित था (क्योंकि विपक्ष के अधिकांश नेताओं को जेल में बंद कर दिया गया था और जो जेल में नहीं थे, वे भूमिगत थे) तब यह (सेक्युलरिज़म) शब्द संविधान में जोड़ा गया. सुव्यवस्थित भारतीय न्याय व्यवस्था में निचली अदालतों के निर्णयों को उच्च न्यायालयों में चुनौती देने का प्रावधान है. वहां समाधानकारक निर्णय न हो तो सर्वोच्च न्यायालय का दरवाज़ा खटखटाया जा सकता है. और सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय से भी समस्या-निवारण न हो तो न्यायाधीशों की बड़ी बेंच (अधिक सदस्य) के समक्ष अपना मत रखने का प्रावधान भी है. अगर समस्या का हल संविधान में परिवर्तन करना ही हो तो संसद में चर्चा कर पर्याप्त बहुमत के समर्थन से आप वह भी कर सकते हो. किंतु संविधान सभा द्वारा अस्वीकृत इस ‘सेक्युलर’ शब्द को संविधान में जोड़ने के लिए इनमें से किसी भी प्रक्रिया का उपयोग नहीं हुआ. आपातकाल (इमरजेंसी) के आतंक में, बिना किसी आवश्यकता, बिना किसी मांग, और बिना किसी चर्चा या बहस के यह परिवर्तन संविधान के preamble में छल से किया गया. यही भारतीय संविधान के साथ हुआ सबसे बड़ा धोखा था.
जिस ‘सेक्युलरिज़्म’ शब्द ने आज हमारी जन-चेतना को जकड़ कर हमारे राष्ट्रीय और सामाजिक जीवन में बखेड़ा खड़ा कर दिया है, उस शब्द का निश्चित अर्थ क्या है यह एक विवादास्पद विषय है. संविधान में इसकी व्याख्या नहीं की है. यह बाहरी संकल्पना हमारे संविधान पर थोपकर देश में प्रतिष्ठित कर जन-मानस को भ्रमित करने का प्रयास हो रहा है. सब उपासना पंथों को समान दृष्टि से देखना अथवा सबको समान अधिकार व समान अवसर उपलब्ध होना, ऐसा उसका अर्थ माना जाए तो, हिन्दुओं की तो यह परंपरा ही रही है. इसलिए हिन्दू बहुल देश होने के कारण भारतीय संविधान के प्रारम्भ (१९५०) से ही सब उपासना पंथों को समान अधिकार और अवसर का उसमें समावेश था. इतना ही नहीं, अल्पसंख्यक कहे जाने वाले उपासना पंथों के अनुयायियों को संविधान ने कुछ विशेष अधिकार दिए हैं जो बहुसंख्यक हिन्दू समाज को नहीं हैं. इन प्रावधानों के होते हुए भी ‘सेक्युलर’ शब्द को रातों-रात संविधान में जोड़ने का क्या अभिप्राय रहा होगा? उसके बाद सेकुलरवाद की आड़ में भारत में घटी घटनाओं के विश्लेषण से यह यह ध्यान में आता है कि देश में सांप्रदायिक राजनीति धड़ल्ले से हो और देश-विभाजक तत्वों को अपना एजेंडा साधने की खुली छूट व संरक्षण मिले, इसीलिए सेकुलरिज्म का संविधान में कपट से मिश्रण हुआ. उसके परिणामस्वरूप आज समाज की क्या दशा हुई है? सेक्युलरिज़्म के नाम पर घोर सांप्रदायिकता और विघटनवाद को खुले आम पोषण और प्रोत्साहन दिया जाता रहा है और इस विघटनकारी वृत्ति का विरोध करने वालों को सांप्रदायिक कहकर कोसा और बदनाम किया जा रहा है.
देश के संसाधनों पर अल्पसंख्यकों का (मतलब मुसलमानों का) पहला अधिकार है, ऐसा घोर सांप्रदायिक विचार हमारे एक ‘सेक्युलर’ प्रधानमंत्री ने बिना हिचक प्रस्तुत किया था. उच्च एवं सर्वोच्च न्यायालय के कई बार नकारने के बावज़ूद और संविधान-सम्मत न होते हुए भी सांप्रदायिक आधार पर आरक्षण देने की बात कुछ सेक्युलर पार्टिंयों के नेता बार-बार करते दिखते हैं. भारत में राज्य यदि सेक्युलर है तो हज के लिए सरकारी सब्सिडी नहीं मिलनी चाहिए. इस्लाम के विशेषज्ञों की मानें तो किसी की सहायता लिए बिना अपने बलबूते पर किया गया हज ही इस्लाम में मान्य है. तभी अन्य किसी भी मुस्लिम देश में हज के लिए सरकारी सहायता नहीं दी जाती. यदि भारत में यह हो रहा है तो यह सेकुलरवाद-विरोधी है और इस्लाम-विरोधी भी. यहां तो धड़ल्ले से वोट-बैंक की राजनीति के लिए रिलिजन के आधार पर स्कॉलरशिप, पढ़ने वाली केवल मुस्लिम लड़कियों को साईकिल, मुस्लिम लड़कियों की ही शादी के लिए आर्थिक सहायता, ऐसे षडयंत्र खुले-आम चलते रहे हैं. तब इन “सेक्युलरवाद खतरे में” वालों के कान पर जूं भी नहीं रेंगी! हज के लिए सरकारी सहायता की तर्ज पर एक ‘सेक्युलर’ राज्य सरकार ने ईसाईयों के वोट पाने हेतु सरकारी खर्च पर जेरुसलेम की यात्रा की घोषणा की. तब “सेक्युलरिज़्म खतरे में” नहीं सुनाई पड़ा! कोर्ट के स्पष्ट मना करने पर भी एक राज्य सरकार ने निर्लज्जतापूर्वक संविधान को ताक पर रख कर मुस्लिमों के लिए आरक्षण की तीन-तीन बार घोषणा की. तब इन सेक्युलरवाद के रक्षकों को साँप सूंघ गया था! केवल हिन्दू धार्मिक स्थानों में श्रद्धालुओं द्वारा किये दान-दक्षिणा पर सरकार का अधिकार जताना और अन्य मतावलम्बियों के धार्मिक स्थानों में एकत्र धन के विनियोग के लिए अंधे बन जाना यह कैसा सेक्युलरवाद है? सेक्युलर व्यवस्था में मज़हब के आधार पर भेद-भाव अपेक्षित नहीं है. परन्तु ये “सेक्युलरवाद खतरे में” वाले लोग इन विषयों पर मौन ही रहते हैं.
अभी कुछ समय पूर्व बंगलुरु में जो प्रायोजित साम्प्रदायिक हिंसा हुई उस पर एक व्यंगात्मक टिपण्णी पढ़ने में आयी. “मंदिर की परंपरा के संरक्षण हेतु रास्ते पर दोनों तरफ अनुशासनबद्ध, शांतिपूर्वक खड़े रहने वालों का रिलिजन होता है परन्तु हिंसा पर उतारू आगजनी और विध्वंस करने के लिए दौड़ने वाली भीड़ का कोई मजहब नहीं होता,” इसे सेक्युलर पत्रकारिता कहते है. और एक टिप्पणी प्रसिद्द पत्रकार तारेक फ़तेह के नाम से सोशल मिडिया में चल रही थी- “प्रमुख सभ्यताओं में अकेला भारत ऐसा देश है जहाँ आपको अपनी विरासत से घृणा करना और इसे बर्बाद करने आए आक्रमणकारियों का महिमामंडन करना सिखाया जाता है. और यह (मूर्खता) “सेक्युलरिज़म” कहलाती है.” (India is the only major civilisational country where you are taught to hate your heritage and glorify the invaders who came to destroy it. And this (absurdity) is called “secularism”.)
अक्सर भारत के सेकुलरवादी अपने विधानों और कृतियों से हिंदुत्व का, हिन्दू परम्पराओं का, हिन्दू मान्यताओं का विरोध करने को सेक्युलरवाद की पूर्ण अभिव्यक्ति बताते आए हैं. इसलिए ओवैसी जैसे घोर सांप्रदायिक विचारों के व्यक्ति के साथ मंच साझा करना सेक्युलरवाद कहलाता है और योगीजी जैसे संन्यासी के साथ मंच साझा करना साम्प्रदायिकता. किसी राजनेता का किसी दरगाह में चादर चढ़ाना, सरकारी खर्चे से इफ्तार पार्टी का आयोजन, यह सब सेकुलरवाद है, पर किसी मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा या शिलान्यास में भाग लेना साम्प्रदायिकता या “सेक्युलरवाद खतरे में” हैं. “ईशावास्यम इदं सर्वम यदकिंचित जगत्याम जगत” – समस्त जगत ईश्वर की छाया है, ऐसी मान्यता वाली भारतीय परंपरा में प्रत्येक कार्य दैवी अधिष्ठान से करने का युगों पुराना विधान है. यह भारतीय आध्यात्मिकता के प्रगटीकरण का एक रूप है, कोई साम्प्रदायिकता (communal act) नहीं. हर कार्य की एक अधिष्ठात्री देवता हैं जिनके माध्यम से उस सर्वव्यापी परमात्मा का आवाहन कर कार्य-आरम्भ होता है. विद्या की अधिष्ठात्री सरस्वती हैं, वैद्यक शास्त्र के धन्वन्तरि, संगीत-नृत्य कला के नटराज, मल्ल विद्या या पहलवानी के हनुमान जी, कारीगरी के विश्वकर्मा, इत्यादि. प्रत्येक विधा का भारतीय उपासक, फिर वह हिन्दू हो, मुसलमान या कोई अन्य, इस अधिष्ठात्री देवता का आवाहन कर ही अपना कार्य आरम्भ करता आया है. ऐसा करना ‘सेक्युलरिज़्म’ का विरोध नहीं है. परन्तु भारत में कट्टरवादी, जिहादी और समाज-विखंडन करने वाली शक्तियों ने ‘सेक्युलरिज़्म’ के नाम पर ऐसी परम्पराओं को सांप्रदायिक बताकर उनका विरोध करना शुरू किया. तथा सांप्रदायिक और अल्पसंख्यक राजनीति करने वाले राजकीय दल अपने राजनैतिक स्वार्थ के लिए इन विखंडनवादी और सांप्रदायिक तत्वों का समर्थन या अनदेखी करते रहे हैं. मेरे एक परिचित पत्रकार के नए मकान में सुथारी काम (furniture) के मुस्लिम ठेकेदार ने विश्वकर्मा जयंती के पहले उनसे कहा “कल काम नहीं होगा, कल विश्वकर्मा जयंती है.” फिर उस मुस्लिम ठेकेदार ने उस हिन्दू पत्रकार को विश्वकर्मा जयंती का महत्व समझाया. भारत के आम व्यक्ति के लिए भारतीय विचार समझना आसान है, पर भारत की सेक्युलर जमात के लोग यह नहीं समझते हैं, या नहीं समझने का दम्भ करते हैं. इस नए परिप्रेक्ष्य में सेक्युलरिज़्म की व्याख्या बदलती मालूम होती है- (हिन्दू) उपासना पंथों का विरोध यानि सेक्युलरिज़्म.
आध्यात्मिकता-आधारित (spirituality-based view-of-life) भारतीय चिंतन ने यहाँ चिरकाल से एकात्म और सर्वांङ्गीण जीवन का मार्ग दर्शाया. इसी चिंतन को भारत के बाहर हिंदुत्व (Hinduness) नाम से जाना गया है. हमारी सर्व-समावेशक भारतीय मानसिकता का अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि १९४७ में, एक ही समाज से विभाजित दो देश और उनके दो अलग-अलग संविधान बहुत भिन्न हैं. पाकिस्तान का संविधान उस उदारता और सर्व समावेशकता का उदाहरण दुनिया के समक्ष नहीं रख पाया जिसका परिचायक भारत का संविधान निरंतर रहा है. भारत के संविधान की उदारता का मूल कारण हमारा हिन्दुबहुल होना है, जबकि पाकिस्तान के संविधान की कमी उसके हिंदुत्व को नकारने (denial) और हिंदुत्व से दूरी रखने (alienation) में है. यदि सेक्युलरवाद का अर्थ सभी रिलिजनस को समानता से देखना है तो ऐसा आचरण केवल इस देश का हिन्दू ही करता आया है. इतना ही नहीं, सभी रिलिजन को समान रूप से देखने से आगे बढ़ कर, हिन्दू “एकं सत विप्राः बहुधा वदन्ति” को मानता आया है, अर्थात, “सत्य एक है जिसे बुद्धिमान विभिन्न नामों से बुलाते हैं.” सन् १८९३, शिकागो में पार्लियामेंट ऑफ़ वर्ल्ड’स रिलिजनस के अपने व्याख्यान में स्वामी विवेकानंद ने भारत की एक पहचान ‘मदर ऑफ ऑल रिलिजन्स’ दी. उसमें गौरवपूर्ण उल्लेख है कि दुनिया के कई अन्य धर्मों के अनुयायी अलग-अलग काल खण्डों में पीड़ित और प्रताडित स्थिति में भारत आए और हिन्दू परंपरा के चलते उन्हें यहाँ अपने उपासना पंथों का मुक्त अनुसरण करने की अगाध स्वतंत्रता सम्मानपूर्वक मिली. आगे उन्होंने कहा हम सहिष्णुता से भी आगे बढ़ कर सभी पंथों को स्वीकार करते हैं (“we go beyond tolerance, we accept all ways to be true”). यह केवल हिन्दू कहता आया है, करता आया है और जीता भी आया है.
ऐसे उदार हिंदुत्व को सांप्रदायिक बता कर मूल सांप्रदायिक विचारों को सेक्युलर नाम से प्रतिष्ठित करने का प्रयास हमारे देश में पिछले कई दशकों से खुले आम चल रहा है. कुछ समय पूर्व एक परिचित कार्यकर्ता की सुविद्य, युवा बहन से मुलाक़ात में हमारी भारत के विषय पर गहराई से चर्चा हुई. लेखक के नाते काम करने की उसकी इच्छा के चलते मैंने उसे हमारी चर्चा पर अपने विचार लिखने को कहा. उसने जो लिखा वह इस सेकूलरवाद के दुष्परिणाम पर सीधा प्रकाश डालता है. वह शब्दशः निम्नानुसार है.
“मैं भारतीय हूं, कुछ दिनों पहले तक मेरे लिए इसका अर्थ केवल इतना ही था कि मैं भारत से हूं. मुझे लगता था कि यह एक भौतिक, भौगोलिक और शायद सांस्कृतिक वास्तविकता भर है.
मैं हिन्दू भी हूं. किन्तु मुझे ऐसा लगता था कि मेरी आस्था – जो मेरे लिए नितांत व्यक्तिगत है, इसका मेरी राष्ट्रीय पहचान से कोई लेना-देना नहीं है. कुछ रोज पहले तक मैंने कभी भी अपनी आस्था और अपनी राष्ट्रीय पहचान को मिलाने-एक करने के बारे में नहीं सोचा. मैं मानती थी कि ये दोनों एक नहीं हैं. वास्तव में, थोड़ा समय पहले तक मेरा साफ तौर पर यह मानना था कि इन दोनों को मिलाना नहीं चाहिए.
हम जैसे, ‘शहरी, आधुनिक, प्रगतिशील’ भारतीयों को अपनी धार्मिक और राष्ट्रीय पहचान को गड्डमड न करने की घुट्टी पिलाई जाती है. यही सिखाया जाता है कि देशभक्त होना अच्छा है मगर कार्यस्थल या सार्वजनिक कार्यक्रमों में अपनी हिन्दू पहचान को किनारे रखा जाए क्योंकि इससे किसी अन्य भारतीय मत-पंथ को ठेस लग सकती है.
माना जाता है कि हिन्दू होना और भारतीय होना दो अलग बातें हैं, और उन्हें अलग-अलग ही रखा जाना चाहिए. इन दोनों को मिलाने वाले को अन्य मत-पन्थ के लोगों को हाशिए पर रखने वाले, साम्प्रदायिक व्यक्ति के रूप में देखा जाता है.
भारत हर मत-पंथ का, बराबर है, यह हमें पढ़ाया जाता है. भारत विविध संस्कृतियों का देश है, हमें यह सिखाया जाता है.”
कुछ दिनों पहले, इस विषय पर मेरी चर्चा संघ के पदाधिकारी डॉ. वैद्य से हुई. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ऐसा संगठन है जो भारत को हिन्दू राष्ट्र मानता है; जो दृढ़ता से “हिंदुत्व” के विचार के प्रसार में विश्वास करता है. एक ऐसा संगठन जो भारत में सभी को भगवा दृष्टिकोण से देखता है. ऐसा है, या फिर कम से कम मुझे इस बातचीत के कुछ दिन पहले तक ऐसा ही लगता था.
सच्चे सेक्युलरवाद के लिए उपासना पंथों का विरोध (being anti-religion or non-religious & irreligious) आवश्यक नहीं है. सही मायने में देखा जाए तो कोई भी व्यक्ति सेक्युलर हो ही नहीं सकता. यदि कोई ऐसा दावा कर रहा है तो वह या तो झूठ बोल रहा है या दम्भ कर रहा है. प्रत्येक व्यक्ति के जीवन की कोई न कोई आध्यात्मिक अवधारणा माने रिलिजन होना स्वाभाविक ही है. वह हिन्दू, मुसलमान, ईसाई, पारसी, यहूदी, जैन, बौद्ध, सिख, वैष्णव, शैव, देवी-उपासक, प्रकृति-पूजक या निरीश्वरवादी (atheist) कुछ भी हो सकता है. अपनी-अपनी समझ और मान्यताओं के अनुसार जीवन जीने का उसे अधिकार और स्वातंत्र्य है. इससे सेक्युलरवाद को बाधा नहीं पहुँचती. सेक्युलरवाद की अपेक्षा है कि सभी रिलिजन के लोगों को समान दृष्टि से देखें. पर आप यदि सभी उपासना मार्गों को केवल समान दृष्टि से देखना ही नहीं, उन सभी को स्वीकार भी करते हो (acceptance) तो आप हिन्दू ही हो. आचार्य विनोबा भावे ने हिन्दू होने की बहुत सरल व्याख्या की है. वे कहते हैं- “इस मार्ग से ही मुक्ति – यह अहिन्दु विचार है, और इस मार्ग से भी मुक्ति- यह हिन्दू विचार है.” (Salvation through this way only- non Hindu; Salvation through this way also– Hindu).
मेरा मानना है कि न व्यक्ति का सेक्युलर होना संभव है और न ही उसकी आवश्यकता है. राज्य का ‘सेक्युलर’ होना अपेक्षित है. जैसे किसी राज्य की परिवहन व्यवस्था (State Transport Corporation) सेक्युलर होनी चाहिए, इसके लिए उस परिवहन व्यवस्था के अध्यक्ष का सेक्युलर होना आवश्यक नहीं है. उसका सभी उपभोक्ताओं के साथ समान व्यवहार अपेक्षित है. किन्तु सबको समान व्यवस्था तब ही उपलब्ध होगी जब उसका बस-चालक या कंडक्टर सेक्युलर होगा ऐसा तर्क अतार्किक है. भारत में अधिकांश वाहन-चालक अक्सर सुबह अपना कार्य अपनी इष्ट देवता को स्मरण कर और अपने वाहन को प्रणाम कर आरम्भ करते हैं. इसमें सेकुलरवाद को बाधा कहाँ आती है? परिवहन व्यवस्था सेक्युलर होना याने उस व्यवस्था का उपयोग सभी लोग समान रूप से कर सकेंगे, उसमें भेद-भाव नहीं होगा. कंडक्टर सभी से समान किराया लेगा. रिलिजन के आधार पर किराये में, बैठने के स्थान, इत्यादि में कोई भेद-भाव नहीं होगा. महिला, वृद्ध या अपंगत्व होने के आधार पर कुछ यात्रियों को विशेष सुविधाएँ मुहैया कराना समझ सकते हैं, परन्तु, सेक्युलर तंत्र या व्यवस्था में विशेष सुविधा या सहूलियत का आधार आपका मज़हब तो नहीं हो सकता. राजकीय व्यवस्था के अंतर्गत सभी को समान सहूलियत देना सेक्युलर होना है, भले वह व्यवस्था सरकारी हो या निम-सरकारी.
हमारी चर्चा पर अपने विचारों का लेख उस युवती ने यूं पूर्ण किया –
“कुछ दिनों पहले, इस विषय पर मेरी चर्चा संघ के पदाधिकारी डॉ. मनमोहन वैद्य से हुई. बातचीत के दौरान ही मुझे अनुभव हुआ कि इस विषय में मेरा ‘ज्ञान’, सच्चाई से कितना दूर था. पहली बार, मैंने सुना और समझा कि वास्तव में ‘हिन्दू’ होने का क्या अर्थ है और किस तरह यह ‘इंडियन’ या ‘भारतीय’ होने से जरा भी दूर नहीं है. वास्तव में, यह एक ही चीज हैं. हिंदुत्व (हिंदुइज्म इस शब्द का सटीक नहीं बल्कि कामचलाऊ अनुवाद है), एक जीवन शैली है. जब ‘रिलिजन’ की अवधारणा भी नहीं थी, तब भी दुनिया के इस हिस्से में जीवन था. लोगों के जीने के इस तरीके निरंतर विस्तार होता रहा. इस देश को मजहब ने बहुत बाद में दो टुकड़ों में बांटा. चाहे पंथ-मजहब का जो भी हल्ला-गुल्ला आज दिखता हो आगे चलकर भी भारत में जीवन जीने का तरीका यही रहेगा.
‘इंडिया’ या कहिये भारत, इस जीवन शैली का केंद्र है. इस राष्ट्र की आत्मा इसकी धड़कन, इसका फलना-फूलना, इसी विविधता का उत्सव है. हिन्दू होने का अर्थ इस विविधता का उत्सव और बाहरी भेदों के बावजूद अंतर्निहित एकतत्व की समझ है.
भारत का विस्तार नक्शे पर खिंची चंद लकीरों से कहीं आगे तक है.
यह समावेश और मानवता की एक अवधारणा है जो पीढ़ी दर पीढ़ी होते हुए और एक के बाद दूसरा आक्रमण झेलते हुए आगे बढ़ी है.
इसी तरह, हिन्दू होने का अर्थ आप जिस भगवान की पूजा करते हैं, उससे आगे का है. यह उन विभिन्न मार्गों का महोत्सव है जो एक ही ईश्वर की ओर ले जाते हैं. इस हिंदुत्व में इस देश का समस्त सार निहित है.
मैं एक हिन्दू हूं, जो मुझे भारतीय बनाता है. मैं एक भारतीय हूं, जो मुझे हिन्दू बनाता है, फिर मैं कहां अपने हाथ जोड़ती हूं या पूजा में सिर झुकाती हूं, इससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता.”
आज के सजग भारत में साम्प्रदायिक राजनीती निष्क्रिय होती दिख रही है और देश-विभाजक योजनाएं विफल हो रही हैं, इसीलिए ये सब तत्व “संविधान खतरे में है क्योंकि सेक्युलरवाद खतरे में है” चिल्ला रहे हैं. अपनी आँखों से भ्रम की पट्टी हटा कर देखें तो वास्तव में समाज में राष्ट्रीयता का जागरण हो रहा है. देश और संविधान पर से इस ‘सेक्युलरवाद’ का खतरा टल कर, भारत के परम्परागत बहुत्व (plurality), वैविध्य (diversity) और एकता (unity) अब सुरक्षित होते दिख रहे हैं. ऐसे खोखले और बनावटी सेक्युलरवाद से पीछा छुड़ा कर यदि राज्य सरकार सही मायने में सब के साथ समान व्यवहार करेगी तो देश की तरक्की होगी, एकता और अखंडता का सूत्र मजबूत होगा और देश विभाजन की दुकानदारी करने वालों की दुकानें भी बंद होंगी. यह देश के और सभी के- मुसलमान और ईसाईयों के भी – हित में है. तभी समाज में एकता, समरसता और बंधुत्व निर्माण हो सकेगा. इसलिए जिस वर्तमान ‘छद्म-सेकुलवाद खतरे में है’ ऐसा ये स्वार्थी, दाम्भिक और समाज-विरोधी लोग चिल्ला रहे हैं उसके जाने से देश इस ‘छद्म-सेकुलरवाद’ के खतरे से मुक्त होगा. देश का “स्वत्व” प्रकट होगा. एकता, अखंडता और बंधुत्व का भाव अधिक मजबूत होगा.