गोधरा की घटना से सीख (27 फरवरी)
“गोधरा के लिए, हिंदू समुदाय के लोगों को जिंदा जलाने की पहला घटना नहीं थी”:
2002 की घटना से भड़के थे दंगे
बुधवार (11 दिसंबर 2019) को 2002 में हुए गुजरात दंगों पर नानवाती मेहता आयोग की रिपोर्ट को गृह राज्य मंत्री प्रदीप सिंह जडेजा द्वारा राज्य विधानसभा के पटल पर रखा गया। यह रिपोर्ट तैयार होने के करीब 5 साल बाद पेश की गई…
गुजरात सरकार द्वारा 2002 में ही एक सदस्यीय आयोग का गठन मामले की जांच के लिए किया गया था। हालांकि, बाद में इसमें सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश जी टी नानावती को अध्यक्ष और गुजरात उच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश के जी शाह के सदस्य के रुप मे शामिल कर पुनर्गठित कर दिया गया था। न्यायधीश शाह के निधन के बाद, न्यायधीश अक्षय मेहता ने उनकी जगह ली।
गोधरा में ट्रेन जलाए जाने के बाद हुई सांप्रदायिक हिंसा के कारण तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी, अन्य मंत्रियों और पुलिस अधिकारियों की भूमिका और व्यवहार की जांच करने का काम प्रमुख रुप से आयोग को सौपा गया था। दंगे में 1000 से अधिक लोगों की जान गई थी। उस वक्त भारतीय बुद्धिजीवियों ने नरेंद्र मोदी की अगुवाई वाली सरकार को दंगों के लिए जिम्मेदार ठहराया था। और इस घटना को सांप्रदायिक दंगे के बजाय मुसलमानों के खिलाफ “जातीय सफाई”, “राज्य आतंकवाद” और “तबाही” करार दिया था।
हालांकि, नानावती-मेहता आयोग ने तत्कालीन राज्य प्रशासन, मंत्रियों और पुलिस अधिकारियों की दंगे में किसी भी तरह की प्रत्यक्ष या प्रत्यक्ष रूप से भूमिका को खारिज कर दिया, और बड़े पैमाने पर दंगों को आयोजित करने के लिए किसी भी पूर्व साजिश की संभावना को भी खारिज कर दिया। आयोग ने दंगों को किसी भी “पूर्व-नियोजित साजिश” या “जानबूझ कर की गई हिंसा” का नाम देने से भी इंकार कर दिया।
1500 पन्नों और 9 खंडों वाली अपनी रिपोर्ट में आयोग का कहना है कि “इस तरह के कोई सबूत नहीं है कि ये हमले राज्य के किसी भी मंत्री द्वारा प्रेरित या भड़काने की वजह से हुए थे। वामपंथी विचारधारा के बुद्धजीवियों के उस आरोप को भी खारिज कर दिया कि गोधरा ट्रेन जलने की घटना, मुसलमानों के खिलाफ एक सुनियोजित साजिश थी जिसे भड़काया गया था जिसमें किसी अंदर के ही लोगों का हाथ था।
नानावती-मेहता आयोग की रिपोर्ट उपरोक्त प्रस्तावों को खारिज करती है और राज्य में सांप्रदायिक हिंसा के लिए गोधरा की घटना को एक चिंगारी का काम करने वाला बताती है।
रिपोर्ट में लिखा गया है, “पूरी जांच पर विचार करने से पता चलता है कि गोधरा की घटना के बाद प्रतिक्रिया की वजह से सांप्रदायिक दंगे हुए थे।”
रिपोर्ट के अनुसार “गोधरा की घटना के कारण, हिंदू समुदाय का बड़ा तबका बहुत नाराज हो गया था और अंततः उसके गुस्से की वजह से मुसलमानों को हिंसा का शिकार होना पड़ा था।”
गोधरा ट्रेन में आग लगने की घटना
27 फरवरी 2002 को अयोध्या में राम मंदिर पर धार्मिक समारोह करने बाद 59 तीर्थ यात्रियों को साबरमती एक्सप्रेस के एस-6 कोच में जिंदा जला दिया गया था। मारे जाने वालो में 25 महिलाएं, 25 बच्चे और 9 पुरूष शामिल थे।
स्पेशल फास्ट ट्रैक कोर्ट, जिसने गोधरा ट्रेन जलाने के मामले की सुनवाई की थी। उसने 2011 फैसला देते हुए कहा कि कि एस-6 कोच में आग न तो दुर्घटना थी और न ही किसी अपने ने आग लगाई थी।
अदालत ने कहा कि रेलवे स्टेशन के बाहरी क्षेत्र में साबरमती एक्सप्रेस को रोकने के लिए स्थानीय मुसलमानों ने घेर लिया था। और उन्होंने मिनटों के भीतर पेट्रोल का बड़ा स्टॉक इकट्ठा कर लिया।
अदालत ने यह भी पाया कि पेट्रोल स्टॉक करने का काम एक दिन पहले रात में ही कर लिया गया था। यह फैसला अमन गेस्ट हाउस की बैठक के बाद किया गया था।
अगर एक रात पहले अमन गेस्ट हाउस के पास पेट्रोल को खुले रूप में एकत्र नहीं किया गया होता तो यह संभव नहीं था कि इतनी भारी मात्रा में पेट्रोल बेहद कम समय में ट्रेन के पास पहुंच जाता। ट्रेन के कोच एस-6 के पास पहुंचाने में केवल 5-10 मिनट का समय लगा था।
अदालत ने गोधरा की घटना को हिंदू तीर्थयात्रियों को निशाना बनाने के लिए एक ‘पूर्व-नियोजित साजिश’ के रूप में पाया। उसका कहना था कि केवल पांच से छह मिनट के भीतर घातक हथियारों के साथ मुस्लिम लोगों को अचानक इकट्ठा कर रेलवे ट्रैक पर” ए “केबिन” के पास पहुंचना संभव नहीं था। यही नहीं ट्रेन को दूसरी बार चेन खींच कर रोका गया।
अदालत ने आगे कहा कि एस -6 पर हमला अचानक नहीं हुआ था। यह अयोध्या से लौट रहे कारसेवकों को लक्ष्य बनाकर किया गया था।
हमलावरों द्वारा नारे लगाना और मस्जिद से लाउडस्पीकर के जरिए घोषणा करना पूर्व नियोजित योजना को भी दर्शाता है।
बचाव पक्ष के वकील ने तर्क दिया कि हमले पूर्व नियोजित नहीं थे, बल्कि गोधरा स्टेशन के प्लेटफॉर्म पर कुछ मुसलमानों के साथ कारसेवकों द्वारा कथित “दुर्व्यवहार” के बाद एक सहज प्रतिक्रिया थी।
अदालत ने इस तर्क को यह कहते हुए खारिज कर दिया कि पहली बात तो यह है कि इस तरह के झड़पों के परिणामस्वरूप ऐसे नरसंहार नहीं होते थे।
इसके अलावा, कारसेवकों और मुस्लिम विक्रेताओं के बीच झगड़े का विवरण, और मुस्लिम महिलाओं के साथ दुर्व्यवहार के आरोप भी निराधार साबित हुए हैं।
अदालत ने कहा कि फरार आरोपी सलीम पानवाला और महबूब अहमद उर्फ लटिको ने मुस्लिम लड़कियों के साथ कारसेवकों द्वारा कथित दुर्व्यवहार का फायदा उठाया।
“उन्होंने चिल्लाते हुए, सिग्नल फालिया के पास के इलाके के मुस्लिम लोगों को बुलाया, उन्हें गुमराह किया कि कारसेवक मुस्लिम लड़की को ट्रेन में खींच कर अपहरण कर रहे थे, और उसने ट्रेन की चेन को खींचकर उसे रोकने के भी निर्देश दिए।”
900 से अधिक मुस्लिमों ने ट्रेन पर लोहे के पाइप, लोहे की छड़, धारी, गुप्ती, एसिड के बल्ब, जलती हुई छड़ें से हमला किया, और भीड़ को पास के अली मस्जिद से लाउडस्पीकर से घोषणाएं कर उकसाया गया”।
न्यायाधीश ने यह भी कहा “इस तरह के तनावपूर्ण माहौल को बनाकर,यात्रियों को ट्रेन से बाहर कूदने से भी रोका गया।”
न्यायाधीश ने इस बात का भी उल्लेख किया कि गोधरा हिंदू और मुस्लिम की समान आबादी शहर है। साथ ही गोधरा का सांप्रदायिक दंगों का इतिहास रहा है। साथ ही गोधरा में हिंदू समुदाय के निर्दोष को जलाने की यह पहली घटना भी नहीं है, ”
फैसले में इस बात का भी उल्लेख किया गया कि 1962 से 1995 के बीच करीब ऐसी 10 घटनाएं हुई थी, जब हिंदुओं को जिंदा जलाया गया था और उनके घरों और दुकानों को तबाह किया गया था।
(Source: www. swarajyamag.com)