मुस्लिम-ब्रिटिश सांठगांठ और हिन्दुओं का भोलापन (1857-1919)

डॉ. श्रीरंग गोडबोले

 

 

खिलाफत आंदोलन (1919-1924) की शुरुआत 27 अक्टूबर 1919 से मानी जा  सकती है, जब यह दिन पूरे भारत में खिलाफत दिवस के रूप में घोषित हुआ. एक वर्ष के भीतर, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस (जिसे आगे से इस लेख में “कांग्रेस” नाम से संबोधित किया जाएगा) के सबसे बड़े नेता लोकमान्य तिलक का निधन हो गया और गांधी भारतीय राजनीति का केंद्र बने. डॉ अम्बेडकर के शब्दों में, “यह  आंदोलन मुसलमानों द्वारा शुरू किया गया था फिर जिस दृढ़ निश्चय और आस्था से श्री गांधी ने उस आन्दोलन की बागडोर अपने हाथों में ली उससे बहुत से मुसलमान स्वयं भी आश्चर्यचकित रह गए (बाबासाहेब डॉ. अम्बेडकर सम्पूर्ण वाङ्ग्मय, खंड 15, Pakistan or Partition of India, डॉ. अम्बेडकर, डॉ. अम्बेडकर प्रतिष्ठान,नई दिल्ली, 2013, पृ. 136). न केवल गांधी ने खिलाफत आंदोलन का समर्थन किया, बल्कि उन्होंने कांग्रेस को भी इसमें अपने पीछे खींच लिया. खिलाफत आंदोलन के दौरान मुस्लिम और हिन्दू नेताओं का रवैया और व्यवहार अचानक नहीं आया था. यह 1857 के बाद शुरू हुई एक परिपाटी का सिलसिला था. 1857 से 1919 तक की मुस्लिम रणनीति को, जिसे हिन्दू नेताओं की अज्ञानता से बढ़ावा मिला, ब्रिटिश शासकों की मिली भगत से क्रियान्वित किया गया. खिलाफत आंदोलन को समझने के लिए इस रणनीति जानना आवश्यक है.

ब्रिटिश नीति और प्रवर्ती रणनीति

गंभीर विद्यामूलक विमर्श से लेकर विद्यालयीन पाठ्यपुस्तकों और लोकप्रिय सिनेमा तक, हिन्दू-मुस्लिम संबंधों के संबंध में ब्रिटिश नीति का वर्णन, ‘बांटो और राज करो’ के रूप में किया जाता है.. यह मत  हिन्दू मानस में इतनी गहराई तक व्याप्त हो गया  है कि इसे हिन्दू-मुस्लिम मनमुटाव का प्रमाणिक कारण माना जाता है. इस तर्क की सत्यता की जांच करने का समय अब आ गया है. सर्वप्रथम यह कि ‘बांटो और राज करो’ का सूत्रवाक्य ब्रिटिशों ने नहीं खोजा था. यह प्राचीन  रोमनों द्वारा प्रयुक्त लैटिन सूत्रवाक्य ‘डिवाइड ए इम्पेरा’ (अर्थात, बांटो और जीत लो) का अनुवाद है. यह आधिकारिक ब्रिटिश नीति थी इसके कुछ प्रमाण  निम्नलिखित है (इंडिया इन बॉन्डेज: हर राइट टू फ्रीडम, जाबेज टी संडरलैंड; आर चटर्जी, 1928, पृ. 268):

एक ब्रिटिश अधिकारी जो ‘कार्नेटिकस’ के नाम से  लिखता है, मई 1821 के  ‘एशियन रिव्यु’  में लिखता है  कि, “‘डिवाइड ए इम्पेरा’ हमारे भारतीय प्रशासन का सूत्रवाक्य होना चाहिए, चाहे वह राजनीतिक, असैनिक या फिर सैन्य हो”.

1857 के विद्रोह के समय के बारे में, मुरादाबाद के कमांडेंट लेफ्टिनेंट कर्नल जॉन कोक ने लिखा, “विभिन्न मज़हबों एवं वंशों के बीच विद्यमान अलगाव (जो हमारे लिए भाग्यशाली है) बनाए रखना, न कि उसे समरूप करना, हमारा प्रयास होना चाहिए. डिवाइड ए इम्पेरा भारतीय सरकार का सिद्धांत होना चाहिए.”

बॉम्बे के तत्कालीन गवर्नर लॉर्ड एल्फिनस्टन ने 14 मई 1850 को एक अधिकृत पत्र में लिखा था, “डिवाइड ए इम्पेरा’ यह पुराना रोमन सूत्रवाक्य था और वह हमारा भी होना चाहिए.”

प्रख्यात ब्रिटिश भारतीय नौकरशाह  और लेखक सर जॉन स्ट्रेची ने कहा, “भारतीय लोगों के बीच शत्रुवत मज़हबों का सहअस्तित्व, भारत में हमारी राजनीतिक स्थिति के मजबूत बिंदुओं में से एक है. गांधी के अनुसार ए.ओ. ह्यूम ने एक बार स्वीकार किया था कि ब्रिटिश सरकार  ‘बांटो और राज करो’ की नीति पर  कायम थी.

अंग्रेजों ने अपनी प्रजा के आंतरिक मतभेदों का लाभ उठाकर अपने शासन को कायम रखा तो इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है. हालांकि, केवल नीति का निर्माण करना  व्यर्थ है जब तक कि उसके साथ  रणनीति न जुडी हो. ‘बांटो और राज करो’ की बहुप्रचारित ब्रिटिश नीति केवल परवर्ती रणनीतियों के लिए एक दिशा निर्देशक थी. इसकी  सफलता के लिए अपनाई गई रणनीतियों पर चर्चा किए बिना ब्रिटिश नीतियों का उल्लेख करना बौद्धिक आलस्य का लक्षण है. शुरुआत के लिए, हम कह सकते हैं कि हिन्दू-मुस्लिम शत्रुता का निर्माण अंग्रेजों ने नहीं किया, बल्कि उनके आने से पहले यह अस्तित्व में थी.

उपर्युक्त चार कथनों में से दो स्पष्ट रूप से बताते हैं, कि मतभेद पहले से मौजूद थे. स्वतंत्रता संग्राम में हिन्दू-मुस्लिम एकता का नारा गढ़ा गया था, यह इस बात का प्रमाण है कि हिन्दू और मुस्लिम दो अलग-अलग इकाइयाँ थीं जिनकी एकता को वांछनीय माना जाता था. हिन्दू-ईसाई, हिन्दू-पारसी या हिन्दू-यहूदी एकता के नारे स्वतंत्रता संग्राम के दिग्गजों द्वारा क्यों नहीं उठाए गए? यदि हिन्दू-मुस्लिम वैमनस्य का प्राथमिक कारण ब्रिटिश शासन  था, तो हमें उनके जाने के बाद हिन्दू-मुस्लिम संबंधों  में मधुरता दिखनी  चाहिए थी. इसके अलावा, थाईलैंड जैसे देशों में मुस्लिमों  और उनके गैर-मुस्लिम, गैर-हिन्दू पड़ोसियों के के बारे में क्या निष्कर्ष निकाला जा सकता है जहाँ कभी ब्रिटिश शासन रहा ही नहीं? हम उन दो नेताओं के अभिमत पर विचार करेंगे, जिन्होंने शायद मुस्लिम मानस का सबसे बेहतर आकलन किया था. ध्यान देने योग्य है कि ये दोनों कभी कांग्रेस में शामिल नहीं हुए . एक थे वीर वी.डी. सावरकर (1883-1966), और दूसरे डॉ. बी.आर. अम्बेडकर (1891- 1956). अ.भा. हिंदt महासभा को सन 1939 में दिए गए अपने अध्यक्षीय भाषण में वीर सावरकर ने ‘तीसरा पक्ष दोषी’ सिद्धांत को यह कहकर अस्वीकार किया कि, “… तीसरे पक्ष का सिद्धांत कांग्रेसी विभ्रांति थी…. उनका (कांग्रेसियों का) मानना था कि यदि मुस्लिमों को उनके हाल पर छोड़ दिया जाए तो वे कभी भी किसी राष्ट्रविरोधी, अंतरस्थ, हिन्दू विरोधी गतिविधियों में सहभागी न होते… हजारों कांग्रेसी हिन्दू इन अति मूर्ख राजनीतिक विभ्रांतियों से ठगे हुए दीखते हैं. जैसे कि मुहम्मद कासिम, गजनवी, घोरी, अलाउद्दीन, औरंगज़ेब सभी अंग्रेजों द्वारा, कट्टरपंथी रोष के साथ हिन्दू भारत पर आक्रमण करने और बर्बाद करने के लिए उकसाए गए थे. मानो हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच पिछली दस शताब्दियों से चल रहा युद्ध, इतिहास का एक प्रक्षेप और मिथक मात्र था. जैसे कि अली बंधु, या मिस्टर जिन्ना या सर सिकंदर स्कूल के बच्चे थे, जिन्हें कक्षा में ब्रिटिश आवारा लोगों द्वारा मीठी गोलियों की पेशकश के साथ बिगाड़ दिया गया, और अपने पड़ोसियों के घर पर पत्थर फेंकने के लिए राजी किया गया. वे कहते हैं, ‘अंग्रेजों के आने से पहले, हिन्दू- मुस्लिम दंगे अनसुनी बात थी.’ यह सत्य है क्योंकि, दंगों के बजाय हिन्दू- मुस्लिम के बीच युद्ध एक सतत क्रम था” (हिन्दू राष्ट्र दर्शन, वी.डी सावरकर, महाराष्ट्र प्रांतिक हिंदुसभा, पृ.57, 58).

हिन्दू-मुस्लिम शत्रुता के मूल पर अम्बेडकर के विचार

हिन्दू-मुस्लिम शत्रुता के अपने सूक्ष्म विश्लेषण में अम्बेडकर कहते हैं, “हिन्दू कहते हैं कि अंग्रेज की फूट डालो और राज करो की नीति ही (हिन्दू-मुस्लिम एकता में) विफलता का कारण है … अब समय आ गया है कि हिन्दुओं को अपनी यह मानसिकता छोडनी होगी… क्योंकि उनके दृष्टिकोण में दो अहम् मुद्दों पर ध्यान नहीं दिया गया है. सर्वप्रथम, मुद्दा इस बात को दरकिनार कर देता है कि अंग्रेजों की फूट डालो और राज करो की नीति, यह मानते हुए भी कि अंग्रेज ऐसा करते हैं तब तक सफल नहीं हो सकती जब तक हमारे बीच ऐसे तत्व न हों जो यह विभाजन संभव करा सकें, और यदि यह नीति इतने लम्बे समय तक सफल होती रही है तो इसका तात्पर्य यह है कि हमारे बीच में हमारा विभाजन करने वाले तत्व करीब करीब ऐसे हैं जिनमे कभी भी सामंजस्य स्थापित नहीं हो सकता है और वो क्षणिक नहीं हैं … हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच क्या है, यह केवल एक अंतर का मामला नहीं है, और यह कि इस शत्रुता को भौतिक कारणों से नहीं जोड़ा जाना चाहिए. यह अपने चरित्र में आध्यात्मिक है. यह उन कारणों से बनता है जो ऐतिहासिक, धार्मिक, सांस्कृतिक और सामाजिक प्रतिकार में अपना मूल पाते हैं; जिनमें से राजनीतिक प्रतिकार केवल एक प्रतिबिंब है…. हिन्दुओं और मुसलमानों  के बीच इस प्रतिकार के चलते दोनों के बीच एकता की अपेक्षा करना अस्वाभाविक है (डॉ. अम्बेडकर, उक्त, पृ. 335-336). नीति से ध्यान हटाकर उसे रणनीति पर केंद्रित करने का समय अब स्पष्ट रूप से आ चुका है.

स्वतंत्रता संग्राम से मुस्लिम अलगाव

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का गठन 28 दिसंबर 1885 को ब्रिटिश समर्थन के साथ हुआ था, जिसमें वायसराय लॉर्ड डफ़रिन भी शामिल थे. उसके संस्थापकों में एक थे एलन ऑक्टेवियन ह्यूम, जो पूर्व में एक ब्रिटिश प्रशासक थे. सन 1890 के बाद ब्रिटिश शासन ने कांग्रेस से समर्थन वापस ले लिया. लगभग 1905 तक, कांग्रेस ने निश्चित रूप से एक निष्ठावान की भूमिका निभायी… कांग्रेस के साथ समानांतर, क्रांतिकारी आंदोलन भी था … इस आंदोलन की एक उल्लेखनीय विशेषता इसमें मुस्लिमों  की पूर्ण अनुपस्थिति थी. कांग्रेस में मुस्लिमों की उपस्थिति 1900 के बाद काफी कम हो गई थी (द खिलाफत मूवमेंट इन इण्डिया 1919-1924, ए.सी. नीमायर, मार्टिनस नियॉफ, 1972, पृ. 24-27).

मुस्लिम कांग्रेस से अलग रहे. कांग्रेस के पहले अधिवेशन की रिपोर्ट करते हुए, द टाइम्स ऑफ़ इंडिया ने 5 फरवरी, 1886 को कहा, “केवल एक महान जाति की अनुपस्थिति विशिष्ट रही; भारत के महोमेडन वहां नहीं थे. वे अपने अभ्यस्त अलगाव में बने रहे.” मुस्लिमों द्वारा पूर्ण बहिष्कार के प्रचार ने कांग्रेस नेताओं को अत्यधिक परेशान किया (सोर्स मटेरियल फॉर ए हिस्ट्री ऑफ़ द फ्रीडम मूवमेंट इन इण्डिया, खंड 2, 1885-1920, बॉम्बे स्टेट, 1958, पृ. 17, 22-23).

जब कुछ मुस्लिम प्रतिनिधि कलकत्ता (1886) में दूसरे कांग्रेस अधिवेशन में भाग लेने गए, तो उन्हें अन्य मुस्लिमों ने बताया कि “हिन्दू हमसे आगे हैं. हम उनसे पिछड़ रहे हैं . हम अभी भी सरकार का संरक्षण चाहते हैं और उनसे (हिन्दुओं से) जुड़कर हम कुछ भी  हासिल नहीं कर पाएँगे”( सोर्स मटेरियल,उक्त, पृ. 34). मुस्लिम वकील बद्रुद्दीन तैय्यबजी द्वारा कांग्रेस की अध्यक्षता (मद्रास, 1888) का पुरजोर स्वागत किया गया था. तैय्यबजी ने 18 फरवरी 1888 को सर सैय्यद अहमद खान को लिखे एक पत्र में अपने असली रंगों का खुलासा किया,”… कांग्रेस से आपकी आपत्ति यह है कि ‘यह भारत को एक राष्ट्र मानती  है’. अब मुझे पूरे भारत में किसी ऐसे व्यक्ति के बारे में नहीं पता, जो इसे एक राष्ट्र के रूप में मानता हो … यदि आपने मेरे उद्घाटन संबोधन को देखा हो, तो आप यह स्पष्ट रूप से पायेंगे  कि भारत में कई समुदाय या राष्ट्र अपने स्वयं की विशिष्ट समस्याओं के साथ मौजूद हैं… उदाहरण के लिए विधान परिषदों को ही लीजिए. यदि एक निकाय के रूप में मुसलमानों को यह पसंद नहीं है कि सदस्यों को चुना जाए तो वे आसानी से इस प्रस्ताव को बदल सकते हैं और अपने हितों के अनुकूल बना सकते हैं. इसलिए, मेरी नीति भीतर से कार्य करने की होगी बजाय कि बाहर रहकर करने की” (सोर्स मटेरियल, उक्त, पृ. 72-73).

ह्यूम-तैय्यबजी विरासत

मुस्लिम अलगाव को दूर करने के लिए उतावली कांग्रेस और  अधिक विशिष्ट रूप से ह्यूम (तथा परदे के पीछे अन्य ब्रिटिश तत्व) और तैय्यबजी (जिन्होंने भीतर से काम करने की बात को आत्मस्वीकृति दी) द्वारा निम्नलिखित सूत्र निर्धारित किए गए, जिन्होंने न केवल खिलाफत आंदोलन के दिनों के दौरान हिन्दू मानस को प्रभावित किया बल्कि आज भी कर रहे हैं. यह ध्यान देने वाली बात है कि वायसराय लॉर्ड डफ़रिन इस समय एक साथ कांग्रेस-विरोधी सर सैय्यद अहमद और कांग्रेस के ह्यूम दोनों को निर्देश दे रहे थे (सोर्स मटेरियल, उक्त, पृ.  88).

किसी आंदोलन को ‘राष्ट्रीय’ कहलाने के लिए मुस्लिम सहभागिता अनिवार्य है: 27 अक्टूबर 1888 को ह्यूम को लिखे एक पत्र में तैय्यबजी ने लिखा,“… महोमेडन्स का भारी बहुमत आंदोलन के खिलाफ है. यदि फिर, समूचा मुसलमान समाज कांग्रेस का विरोधी हो – बिना ख्याल किए कि यह सही है या गलत – तो यह आंदोलन सामान्य या राष्ट्रीय कांग्रेस के आन्दोलन के तौर पर समाप्त होगा यह स्वतः सिद्ध है. यदि ऐसा है तो यह अपनी वास्तविक क्षमता से वंचित है  (सोर्स मटेरियल, खंड 2, पृ. 81).

मुस्लिम समर्थन की प्राप्ति के लिए उन्हें तुष्ट करो: 22 जनवरी 1888 को तैय्यबजी को लिखे एक पत्र में, ह्यूम ने लिखा, “अगर हमें सफल होना है तो हमारे पास एक महोमेडन अध्यक्ष  होना चाहिए और, वह अध्यक्ष स्वयं आपको होना चाहिए. यह माना जाता है कि आपके अध्यक्ष होने से , सैयद अहमद के निंदा-भाषणों का उत्तर भारत के महोमेडनों पर कोई प्रभाव नहीं होगा”(सोर्स मटेरियल, खंड 2, पृ. 69).

सार्वजनिक विषयों में मुस्लिम ‘निषेधाधिकार’ को मान्यता: ‘पायोनियर’ पत्र के संपादक को लिखे एक पत्र में, तैय्यबजी   ने वर्णन किया कि किस तरह उन्होंने कांग्रेस के संविधान में निम्नलिखित नियम को समाहित करने के लिए कांग्रेस को बाध्य किया, “महोमेडन प्रतिनिधियों के मामले में सर्वसम्मति से या लगभग एकमत से किसी भी विषय की प्रस्तावना या किसी भी प्रस्ताव के पारित होने में किसी आपत्ति के आने पर, इस तरह के विषय या प्रस्ताव को छोड़ दिया जाना चाहिए” (सोर्स मटेरियल, खंड 2, पृष्ठ 82).

अखिल-इस्लामवादी भावना का सामान्यीकरण और अनुमोदन: 30 अगस्त 1888 को तैय्यबजी को लिखे एक पत्र में, एक ब्रिटिश व्यक्ति जिसका हस्ताक्षर अपठनीय है, ने लिखा है, “यदि यह (कांग्रेस) राष्ट्रीय संस्थान है, तो सभी के हित को ध्यान में रखा जाना चाहिए और हिन्दुओं को अपने महोमेडन भाईयों में दिलचस्पी लेनी चाहिए. 50 लाख से अधिक की संख्या वाले महोमेडन्स को दुनिया के अन्य हिस्सों में अपने सह-धर्मावलम्बियों के भाग्य के प्रति उदासीन नहीं होना चाहिए. अपनी अगली बैठक में  नेशनल कांग्रेस यह कहे कि भारत के महोमेडन भाइयों को दुनिया के अन्य हिस्सों में उनके सह- धर्मावलम्बियों  के साथ जिस तरह का व्यवहार किया जाता है उससे बड़ा दुःख और शर्म महसूस होती है” (सोर्स मटेरियल, खंड 2, , पृ. 74).

मुस्लिमब्रिटिश सांठगांठ

भारतीय राष्ट्रवादी शक्तियों को दबाने के लिए निर्मित मुस्लिम-ब्रिटिश सांठगांठ छिपी नहीं थी. मुस्लिमों ने पृथक निर्वाचक-मंडल और अपनी संख्या के अनुपात के अतिरिक्त राजनीतिक प्रतिनिधित्व की मांग शुरू की. अंग्रेज भी इसमें उनका साथ देने के लिए उत्सुक थे. अंग्रेजों के खिलाफ ’राष्ट्रीय’ मोर्चे में, मुस्लिमों का  सहयोग पाने की लालसा लिए कांग्रेस के हिन्दू नेता इस मुस्लिम-ब्रिटिश खेल का हिस्सा बन गए और वास्तव में मुस्लिमों  ने जो मांग की उससे कहीं अधिक उन्हें दिया गया. ऑल इंडिया मुस्लिम लीग (30 दिसंबर 1906 को स्थापित) के 1907 कराची अधिवेशन के अध्यक्ष के संबोधन का उल्लेख करते हुए, जेम्स रामसे मैकडोनाल्ड (लेबर पार्टी के सह-संस्थापक और ब्रिटेन के तीन बार के प्रधानमंत्री) ने लिखा, “मुस्लिम आंदोलन केवल उसे प्रभावित करनेवाले मुद्दों से ही प्रेरित है. भारत सरकार में महोमेडनवाद के हिस्से के आधार पर महोमेडन अपनी भूमिका निभाते हैं… संख्यात्मक अनुपात उन्हें संतुष्ट नहीं कर पाता… वे साम्राज्य में हमारे साथ विशेष सहयोगी के रूप में खुद का मूल्यांकन करते हैं, और भारत में अपनी स्थिति के अनुसार वे अखिल-इस्लामवाद के घटक और देश के पूर्व शासकों के रूप में अपनी स्थिति को लेकर विशेष महत्व और प्रभाव चाहते हैं…जनसंख्या के अनुपात से अलग, समान प्रतिनिधित्व पर उनका जोर रहा है… प्रभावशाली शक्तियाँ काम में लगी थी, कुछ भारत-स्थित विशिष्ट ब्रिटिश अधिकारियों से महोमेडन नेता प्रेरित थें, और इन अधिकारियों ने शिमला और लंदन में असर डाला तथा पूर्णत: विचारित दुर्भावना से महोमेडनों पर विशेष कृपा कर हिन्दू और महोमेडन समुदायों के बीच कलह का बीजारोपण किया…महोमेडनों को उनकी संख्या के अनुपात से कहीं अधिक प्रतिनिधित्व मिला और हिंदुओ की तुलना में कहीं उदारतापूर्वक मताधिकार प्रदान किया गया” (दि अवेकनिंग ऑफ़ इण्डिया, जे रामसे मैकडोनाल्ड, होडर एंड स्टॉटन, 1910,पृ . 280-284).

अब यह रहस्योद्घाटन होता है कि फूट डालो और राज करो नीति थी और सांप्रदायिक निर्वाचन-मंडल और मुस्लिमों को उनकी संख्या के अनुपात से अधिक राजनीतिक प्रतिनिधित्व प्रदान करना उस नीति को कार्यान्वित करने की रणनीति थी (संडरलैंड, उक्त, पृ. 270, 271).

बढ़ती मुस्लिम मांगें

“मुस्लिम मांगों की कभी न खत्म होने वाली सूची” के विश्लेषण और आकलन के लिए, ‘सांप्रदायिक आक्रामकता’ पर अम्बेडकर  द्वारा अपनी पुस्तक ‘पाकिस्तान ऑर द पार्टीशन ऑफ़ इंडिया’ में लिखा गया अध्याय (पृ. 245-268) पढ़ने योग्य है. “भारत के राजनीतिक विधान में मुसलमानों के लिए अलग प्रतिनिधित्व का सिद्धांत सर्वप्रथम 1892 के इसी अधिनियम के अंतर्गत स्थापित विधायिकाओं के  गठन में प्रयुक्त किया गया…ऐसा संकेत मिलता है कि वायसराय लार्ड डफरिन इसका प्रणेता था जिसने 1888 में ही, जब वह विधायिकाओं में प्रतिनिधित्व के प्रश्न को देख रहा था, इस बात पर बल दिया था कि भारत में हितों के आधार पर प्रतिनिधित्व दिए जाने की आवश्यकता होगी, तथा जिस प्रकार इंग्लैण्ड में प्रतिनिधित्व प्रदान किया जाता है उसे यहाँ प्रचलित नहीं किया जा सकता (पृ .246).

“यद्यपि अलग प्रतिनिधित्व का सुझाव सर्वप्रथम अंग्रेजों द्वारा दिया गया, तथापि अलग राजनैतिक अधिकारों के लिए सामाजिक महत्व को समझने में मुसलमानों ने चूक नहीं की. इसका यह परिणाम हुआ कि 1909 में जब मुसलमानों को यह जानकारी मिली कि विधान परिषदों में सुधार विचाराधीन हैं, तो उन्होंने स्वत: प्रेरणा से वायसराय लार्ड मिन्टो के समक्ष अपना प्रतिनिधिमंडल भेजा तथा वायसराय के समक्ष निम्लिखित मांगे रखीं, जो मान भी ली  गई:

नगरपालिकाओं और जिला परिषदों में उन्हें, अपनी संख्या सामाजिक स्थिति तथा स्थानीय प्रभाव के आधार पर प्रतिनिधित्व दिया जाए.

विश्वविद्यालय के शासी निकायों में मुसलमानों को प्रतिनिधित्व दिया जाये.

प्रांतीय परिषदों में सांप्रदायिक प्रतिनिधित्व के लिए मुसलमान जमीदारों, वकीलों और व्यापारियों तथा अन्य हितों का प्रतिनिधित्व करने वाले समूहों के प्रतिनिधियों, विश्विद्यालय के स्नातकों तथा जिला परिषदों और नगरपालिकाओं के सदस्यों से गठित विशेष निर्वाचन मंडलों द्वारा चुनाव की व्यवस्था की जाए.

इम्पीरियल लेजिस्लेटिव कौंसिल में मुसलमान प्रतिनिधियों की संख्या उनकी जनसंख्या पर आधारित नहीं होनी चाहिए और किसी भी परिस्थिति में मुसलमानों को निष्प्रभावी अल्पमत में नहीं रखना चाहिए. मनोनयन के बजाय प्रतिनिधियों का यथासंभव निर्वाचन ही किया जाना चाहिए तथा ऐसे निर्वाचन के लिए जमीदारों, वकीलों, व्यापारियों, प्रांतीय परिषदों के सदस्यों, तथा विश्वविद्यालयों के शासी निकायों के सदस्यों से गठित अलग मुस्लिम निर्वाचक मंडल को आधार बनाया जाए.

“अक्टूबर 1916 के महीने में, इम्पीरियल लेजिस्लेटिव काउंसिल के 19 सदस्यों ने वायसराय लॉर्ड चेम्सफोर्ड के समक्ष एक ज्ञापन पेश किया और संविधान में सुधार की मांग की. मुस्लिम संप्रदाय के लिए मांगे करते हुए मुसलमान तत्काल आगे आ गए. इनकी मांगें इस प्रकार थीं :

अलग प्रतिनिधित्व के सिद्धांत को पंजाब और मध्य प्रांत  में भी लागू किया जाना चाहिए.

प्रांतीय परिषदों और इम्पीरियल  लेजिस्लेटिव काउंसिल में मुस्लिम प्रतिनिधियों की संख्या निर्धारित की जाना चाहिए.

मुसलमानों के धार्मिक और रीति रिवाजों के मामले में, अधिनियमों में उनको संरक्षण प्रदान किया जाना चाहिए.

इन मांगों के उपरांत विचार विमर्श द्वारा हिन्दुओं और मुसलमानों में समझौता हुआ, जिसे लखनऊ पैक्ट कहा जाता है”(पृ.249). लखनऊ पैक्ट के वास्तुकार कोई और नहीं बल्कि लोकमान्य तिलक थे.  पैक्ट  ने मुस्लिमों  को जनसंख्या में उनके अनुपात  से कहीं अधिक पृथक निर्वाचन मंडल दिया. मध्य प्रांत में यह अनुपात 340 प्रतिशत, मद्रास में 231 प्रतिशत, संयुक्त प्रांत में 214 प्रतिशत, बंबई में 163 प्रतिशत और बिहार और उड़ीसा में 268 प्रतिशत (पृ .253) था.

अम्बेडकर आगे कहते हैं, “…हिन्दुओं की कमजोरियों से लाभ उठाने की मुसलमानों की भावना है. हिन्दू यदि कहीं विरोध करते हैं, तब पहले तो मुसलमान अपनी बात पर अड़ते हैं और उसके बाद हिन्दू जब मुसलमानों को कुछ दूसरी रियायतें देकर मूल्य चुकाने को तैयार होते हैं, तब जाकर मुसलमान जिद छोड़ते हैं” (पृ.266).

नीति का सिद्धांत में रूपांतरण

1885 से 1919 तक यह नीति, सिद्धांत में बदल जाती है. कांग्रेस के हिन्दू नेताओं ने मुस्लिमों की निष्ठा को राष्ट्रीय हित में उत्तरोत्तर बेहतर प्रस्तावों के द्वारा प्राप्त करने की कोशिश की अपनी नीति को  जारी रखा. वहीँ दूसरी ओर अंग्रेजों की सहमति से, मुस्लिमों  ने केवल मुस्लिम हितों को ध्यान में रखते हुए, सौदेबाजी जारी रखी. 1919 से पहले, हिन्दू-मुस्लिम एकता, अनभिज्ञ कांग्रेस के लिए स्वतंत्रता प्राप्त करने के लिए एक सुविचारित नीति थी. 1919 के बाद, यह नीति सिद्धांत बन गई और स्वतंत्रता से अधिक महत्वपूर्ण हो गई. कोई आश्चर्य की बात नहीं है, मुस्लिम नेताओं ने अपने अखिल-इस्लामिक योजनाओं के लिए स्वतंत्रता संग्राम का लाभ उठाया.     …………………..क्रमश:

(लेखक ने इस्लाम, ईसाइयत, समकालीन बौद्ध-मुस्लिम संबंध, शुद्धी आंदोलन और धार्मिक जनसांख्यिकी पर पुस्तकें लिखी हैं.)

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