तुम मुझे खून दो मैं तुम्हें आजादी दूंगा! – सुभाष चन्द्र बोस
सुभाष चंद्र बोस का जन्म 23 जनवरी 1897 को तत्कालीन बंगाल प्रांत के उड़ीसा संभाग में कटक में हुआ। उनका जन्म प्रभावती दत्त बोस और अधिवक्ता जानकीनाथ बोस के एक बंगाली कायस्थ परिवार में हुआ था।
बोस 14 सदस्यीय परिवार के नौवें बच्चे और अपने माता-पिता के छठे बेटे थे। उन्होंने पांच साल की उम्र में कटक में एक अंग्रेजी स्कूल में प्रवेश लिया और 1909 में उन्हे रेवेनशॉ कॉलेजिएट स्कूल में स्थानांतरित कर दिया गया। उन्होंने 1913 में कटक से मैट्रिक किया और कलकत्ता में प्रेसीडेंसी कॉलेज में प्रवेश लिया। प्रारंभिक जीवन में उन पर हेडमास्टर बेनी माधव दास तथा स्वामी विवेकानंद और रामकृष्ण परमहंस की शिक्षा ओं का प्रभाव पड़ा 15 वर्ष की आयु तक आते—आते बोस में आध्यात्मिक चेतना जाग्रत हो चुकी थी।
17 साल की उम्र में, बोस ने अचानक अपने माता-पिता को एक शब्द कहे बिना कलकत्ता में अपना कॉलेज छोड़ दिया और आध्यात्मिक गुरु की तलाश में तीर्थयात्रा पर चले गए। ऋषिकेश, हरिद्वार, मथुरा, वृंदावन, वाराणसी और गया, जैसे स्थानों पर गुरू की तलाश में तीर्थाटन करने के बाद वह कलकत्ता लौट आए। 1916 में एक क्रांतिकारी बोस को प्रेसीडेंसी कॉलेज से निष्कासित कर दिया गया था और कलकत्ता विश्वविद्यालय से उनका नाम काट दिया गया क्योंकि उनके नेतृत्व में भारतीय छात्रों ने अंग्रेजी के प्रोफेसर ई एफ ओटन की पिटाई की थी, अंततः 1917 में कलकत्ता के स्कॉटिश चर्च कॉलेज में उनको प्रवेश मिल गया । 1919 में दर्शन शास्त्र में प्रथम श्रेणी में स्नातक की उपाधि प्राप्त की। उन्होंने 9 सितंबर 1919 को कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय में भारतीय सिविल सेवा परीक्षा की तैयारी हेतु अध्ययन के लिए प्रवेश किया। जुलाई 1920 में, बोस ने लंदन में आईसीएस परीक्षा दी और केवल आठ महीने के अध्ययन के बावजूद वे चौथे स्थान पर चयनित हुए। बोस ने आईसीएस की परीक्षा तो सहज रूप से उत्तीर्ण कर ली किन्तु इसके बाद उनको गंभीर दुविधा का सामना करना पड़ा कि उन्हे क्या इस अवसर को लेना चाहिए अथवा नहीं और इसके बारे में पत्राचार के माध्यम से अपने परिवार को सूचना किस प्रकार देनी चाहिए या उनसे कोई सलाह कैसे लेनी चाहिए। अंततः अप्रैल 1921 में, बोस इस आईसीएस पद को ग्रहण करने से पीछे हट जाने का निर्णय लिया और 1921 की गर्मियों में भारत लौट आए।
भारत पहुंचने के बाद, बोस भारतीय नेताओं, महात्मा गांधी और चित्तरंजन दास से मिले, और कांग्रेस पार्टी में शामिल हो गए। इसके तुरंत बाद, बोस और दास को 1921 में प्रिंस ऑफ वेल्स की भारत यात्रा के खिलाफ बहिष्कार के सफल आयोजन के लिए क्रिसमस के दिन गिरफ्तार किया गया और उन्हें छह महीने की कैद की सजा सुनाई गई। अपनी रिहाई के बाद , बोस ने बाढ़ राहत कार्य, कलकत्ता में फॉरवर्ड प्रकाशन के लिए संपादकीय सेवाओं और स्वराज पार्टी के लिए प्रचार कार्य का संचालन किया।
इसी बीच 1924 में, बोस को कलकत्ता निगम का मुख्य कार्यकारी अधिकारी नियुक्त किया गया, जिस समय दास को कलकत्ता का मेयर चुना गया था। 24 अक्टूबर 1924 को नए बंगाल अध्यादेश के अंतर्गत मांडले में बोस को फिर से बंदी बना लिया गया। ढाई साल बाद अस्वस्थता के आधार पर वह रिहा हो गए, क्योंकि जेल में वे तपेदिक से पीड़ित हो गए थे। 1928 से 1937 तक, वह राजनीति में बने रहे, और इस समयावधि में ब्रिटिश अधिकारियों द्वारा उन्हें दो बार गिरफ्तार किया गया। उन्हें 1938 में भारतीय कांग्रेस पार्टी का अध्यक्ष नियुक्त किया गया किन्तु गांधी जी और नेहरू से वैचारिक मतभेद होने के कारण उन्होंने 28 अप्रैल 1939 को अध्यक्ष पद से त्यागपत्र दे दिया। बोस ब्रिटिश उपनिवेशवाद के विरुद्ध सशस्त्र प्रतिरोध के पक्षधर थे। अपने त्यागपत्र के बाद, उन्होंने 3 मई 1939 को कांग्रेस के भीतर एक पार्टी का गठन किया जिसका नाम फॉरवर्ड ब्लॉक था।
21 जुलाई 1940 को उन्हें फिर से गिरफ्तार किया गया, बोस इस बार भूख हड़ताल पर चले गए, अपनी रिहाई की मांग की, जो उन्हे दिसंबर 1940 में प्राप्त हो गई । कड़ी निगरानी के बावजूद, बोस एक संभ्रांत मुस्लिम के भेष में भागने में सफल रहे। इतालवी दूतावास की मदद से ऑरलैंडो माजोटा के नाम से यात्रा करते हुए, वह मास्को के रास्ते से जर्मनी पहुंचे। वहां उन्होंने भारत की आजादी लड़ने के लिए भारतीय सेना (आजाद हिंद फौज) के लिए यूरोप और उत्तरी अफ्रीका में युद्ध बंदी भारतीय कैदियों की भर्ती की। उनके विलक्षण नेतृत्व से प्रेरित होकर, बर्लिन में उनके अनुयायियों ने उन्हें नेताजी के नाम से सम्मानित किया।
बोस क्रांतिकारी स्वतंत्रता सेनानी रास बिहारी बोस के निमंत्रण पर 2 जुलाई 1943 को सिंगापुर पहुंचे। उन्हें इंडियन इंडिपेंडेंस लीग का अध्यक्ष नियुक्त किया गया और उन्होंने पूर्वी एशिया में इंडियन इंडिपेंडेंस लीग के नेता के रूप में रास बिहारी बोस से पदभार संभाला। 21 अक्टूबर 1943 को, सुभाष चंद्र बोस ने कैथे सिनेमा हॉल में स्वतंत्र भारत की सरकार के गठन की घोषणा की। दो दिन बाद, उन्होंने ब्रिटेन और संयुक्त राज्य अमेरिका के विरुद्ध युद्ध की घोषणा की। जापानियों की मदद से, उन्होंने आज़ाद हिंद फौज (जिसे इंडियन नेशनल आर्मी भी कहा जाता है) को फिर से संगठित और कायाकल्प किया। उन्होंने मलाया और दक्षिण पूर्व एशिया के अन्य हिस्सों में धन संकलन के लिए आक्रामक अभियान चलाया और आज़ाद हिंद फौज के लिए भर्तियाँ की ।
बोस आज़ाद हिंद फ़ौज में कई ब्रिटिश भारतीय सैनिकों को भर्ती करने में सफल रहे , जो सिंगापुर से पीछे हटने के दौरान मलाया में ब्रिटिश भारतीय सेना के अधिकारियों के व्यवहार से असंतुष्ट थे। 14 अप्रैल 1944 को, उन्होंने भारत में अंग्रेजों के खिलाफ एक आक्रामक हमले में आजाद हिंद फौज का नेतृत्व किया। बर्मा सीमा को पार करते हुए उन्होंने मणिपुर के मोइरांग में भारतीय राष्ट्रीय तिरंगा झंडा लगाया। यह ब्रिटिश साम्राज्य के अधीन भारतीय भूमि पर अपना दावा करने का प्रतीक था। हालांकि, इस आक्रमण में वह कोहिमा और इम्फाल को वापस लेने में विफल रहे और उनकी सेना को बर्मा की ओर पीछे हटना पड़ा। अंतर्राष्ट्रीय घटनाक्रम के कारण उन्हें अपना अभियान बीच में ही रोकना पड़ा और बोस 24 अप्रैल 1944 को बैंकाक के रास्ते सिंगापुर के लिए रवाना हुए।
नेताजी की मृत्यु
सिंगापुर में रहते हुए, बोस को 12 अगस्त 1945 को जापानी आत्मसमर्पण की खबर मिली। दक्षिण-पूर्व एशिया पर उनके कब्जे के बाद से, जापान ने स्वतंत्र भारत के लिए बोस की लड़ाई का समर्थन किया था। 17 अगस्त 1945 को, बोस ने बैंकॉक के लिए सिंगापुर छोड़ा और बाद में विमान द्वारा साइगॉन गए। उन्होंने साइगॉन में एक जापानी बमवर्षक विमान में उन्हें दी गई सीट स्वीकार कर ली। जापानियों ने वादा किया कि वे रूसी कब्जे वाले मंचूरिया तक पहुंचने के लिए उन्हें सहायता करेंगे। बोस को सोवियत संघ के साथ संपर्क करने के पीछे यह उम्मीद थी कि वे उनके राष्ट्रवादी आंदोलन का समर्थन करेंगे। हालांकि, विमान 18 अगस्त 1945 को दोपहर 2 बजे ताईहोकू (ताइपे) हवाई अड्डे के आसपास दुर्घटनाग्रस्त हो गया और एक मत यह है कि दुर्घटना में बोस बुरी तरह से जल गए और बाद में ताइपे में एक जापानी सैन्य अस्पताल में उसकी मौत हो गई।
हालाँकि, बोस की मृत्यु के इस घटनाक्रम को एक बड़ा वर्ग आज तक अस्वीकार करता है। कुछ लोग मानते हैं कि बोस ताइपेई विमान दुर्घटना में नहीं मरे थे और यह मौत की रिपोर्ट बोस, उनके सहयोगियों और जापानियों द्वारा मंचूरिया में एक स्थान पर शरण देने की रणनीति के लिए थी ताकि वे अंग्रेजों के हाथ न आएं और भारतीय स्वतंत्रता संग्राम को जारी रख सकें। एक वर्ग के अनुसार उनकी मौत रूस में निर्वासन के दौरान हुई जबकि सबसे प्रचलित मत यह रहा है कि वह रूस से भारत लौटे और एक साधु गुमनाम रूप से रहने लगे ।
बोस की मृत्यु के विवाद को देखते हुए और यह जानने के लिए कि उनके साथ क्या हुआ था, तीन अलग-अलग जांच आयोग बनाए गए थे। शाह नवाज खान समिति (1956) और न्यायमूर्ति जीडी खोसला आयोग (1970-74) ने निष्कर्ष निकाला कि बोस की ताइपेई में विमान दुर्घटना में मृत्यु हो गई थी। हालांकि, सेवानिवृत्त न्यायमूर्ति एमके मुखर्जी के नेतृत्व में बने तीसरे जांच आयोग की रिपोर्ट, जिसे 1999 में प्रस्तुत किया गया, ने पहले की जांच के निष्कर्षों का खंडन किया।
हालाँकि, मुखर्जी आयोग के निष्कर्षों को तत्कालीन यूपीए सरकार ने अस्वीकार कर दिया था।
उनकी विचारधारा और व्यक्तित्व के बारे में कई व्याख्याएँ उपलब्ध हैं लेकिन अधिकांश विद्वानों का मानना है कि हिंदू आध्यात्मिकता उनके जीवन का मूलू आधार थी और उसका गहन प्रभाव उनके राजनीतिक और सामाजिक विचारों पर पड़ा । यह आध्यात्मिक चेतना और उसके कारण नेताजी का व्यक्तित्व और कतृत्व किसी भी प्रकार की कट्टरता या रूढ़िवाद से हमेशा दूर रहा । सुभाष चंद्र बोस का मानना था कि भगवद्गीता अंग्रेजों के विरुद्ध उनके संघर्ष की प्रेरणा का एक बड़ा स्रोत थी। नेताजी को को बचपन से ही स्वामी विवेकानंद की शिक्षाओं, उनके राष्ट्रवादी विचारों तथा सामाजिक सेवा और सुधार पर उनके द्वारा दिए गए संदेशों से प्रेरणा प्राप्त हुई थी जिसका उल्लेख वह प्रायः किया करते थे।
वर्ष 2022 में केंद्र सरकार ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में एक महत्वपूर्ण निर्णय लिया कि हर वर्ष गणतंत्र दिवस का उत्सव अब नेताजी की जन्म तिथि 23 जनवरी से ही आरंभ हो जाएगा। भारत मां पर सर्वस्व न्यौछावर करने वाले नेताजी को यह श्रद्धांजलि उचित ही है, बस इसके लिए देश ने सात दशक से भी अधिक समय तक प्रतीक्षा की। कांग्रेस सरकारों के शासनकाल में असंख्य अन्य स्वतंत्रता सेनानियों की तरहं नेताजी के भी योगदान को विस्मृत कर दिया गया। स्वतंत्रता के अमृत महोत्सव में मोदी सरकार इन गलतियों को सुधारने में प्रयासरत है।