धर्म महासभा: स्वागत भाषण स्वामी विवेकानंद – विश्वधर्म-महासभा
अमेरिकावासी बहनो तथा भाईयो,
आपने जिस सौहार्द और स्नेह के साथ हम लोगों का स्वागत किया हैं, उसके प्रति आभार प्रकट करने के निमित्त खड़े होते समय मेरा हृदय अवर्णनीय हर्ष से पूर्ण हो रहा हैं। संसार में संन्यासियों की सब से प्राचीन परम्परा की ओर से मैं आपको धन्यवाद देता हूँ; धर्मों की माता की ओर से धन्यवाद देता हूँ; और सभी सम्प्रदायों एवं मतों के कोटि कोटि हिन्दुओं की ओर से भी धन्यवाद देता हूँ।
मैं इस मंच पर से बोलनेवाले उन कतिपय वक्ताओं के प्रति भी धन्यवाद ज्ञापित करता हूँ, जिन्होंने प्राची के प्रतिनिधियों का उल्लेख करते समय आपको यह बतलाया हैं कि सुदूर देशों के ये लोग सहिष्णुता का भाव विविध देशों में प्रचारित करने के गौरव का दावा कर सकते हैं। मैं एक ऐसे धर्म का अनुयायी होने में गर्व का अनुभव करता हूँ, जिसने संसार को सहिष्णुता तथा सार्वभौम स्वीकृति, दोनों की ही शिक्षा दी हैं। हम लोग सब धर्मों के प्रति केवल सहिष्णुता में ही विश्वास नहीं करते, वरन् समस्त धर्मों को सच्चा मान कर स्वीकार करते हैं। मुझे ऐसे देश का व्यक्ति होने का अभिमान हैं, जिसने इस पृथ्वी के समस्त धर्मों और देशों के उत्पीड़ितों और शरणार्थियों को आश्रय दिया हैं। मुझे आपको यह बतलाते हुए गर्व होता हैं कि हमने अपने वक्ष में यहूदियों के विशुद्धतम अवशिष्ट को स्थान दिया था, जिन्होंने दक्षिण भारत आकर उसी वर्ष शरण ली थी, जिस वर्ष उनका पवित्र मन्दिर रोमन जाति के अत्याचार से धूल में मिला दिया गया था । ऐसे धर्म का अनुयायी होने में मैं गर्व का अनुभव करता हूँ, जिसने महान् जरथुष्ट्र जाति के अवशिष्ट अंश को शरण दी और जिसका पालन वह अब तक कर रहा हैं। भाईयो, मैं आप लोगों को एक स्तोत्र की कुछ पंक्तियाँ सुनाता हूँ, जिसकी आवृति मैं बचपन से कर रहा हूँ और जिसकी आवृति प्रतिदिन लाखों मनुष्य किया करते हैं:
रुचिनां वैचित्र्यादृजुकुटिलनानापथजुषाम् । नृणामेको गम्यस्त्वमसि पयसामर्णव इव ।।
– ‘ जैसे विभिन्न नदियाँ भिन्न भिन्न स्रोतों से निकलकर समुद्र में मिल जाती हैं, उसी प्रकार हे प्रभो! भिन्न भिन्न रुचि के अनुसार विभिन्न टेढ़े-मेढ़े अथवा सीधे रास्ते से जानेवाले लोग अन्त में तुझमें ही आकर मिल जाते हैं।’
यह सभा, जो अभी तक आयोजित सर्वश्रेष्ठ पवित्र सम्मेलनों में से एक हैं, स्वतः ही गीता के इस अद्भुत उपदेश का प्रतिपादन एवं जगत् के प्रति उसकी घोषणा हैं:
ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम् । मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः ।।
– ‘ जो कोई मेरी ओर आता हैं – चाहे किसी प्रकार से हो – मैं उसको प्राप्त होता हूँ। लोग भिन्न मार्ग द्वारा प्रयत्न करते हुए अन्त में मेरी ही ओर आते हैं।’
साम्प्रदायिकता, हठधर्मिता और उनकी बीभत्स वंशधर धर्मान्धता इस सुन्दर पृथ्वी पर बहुत समय तक राज्य कर चुकी हैं। वे पृथ्वी को हिंसा से भरती रही हैं, उसको बारम्बार मानवता के रक्त से नहलाती रही हैं, सभ्यताओं को विध्वस्त करती और पूरे पूरे देशों को निराशा के गर्त में डालती रही हैं। यदि ये बीभत्स दानवी न होती, तो मानव समाज आज की अवस्था से कहीं अधिक उन्नत हो गया होता । पर अब उनका समय आ गया हैं, और मैं आन्तरिक रूप से आशा करता हूँ कि आज सुबह इस सभा के सम्मान में जो घण्टाध्वनि हुई हैं, वह समस्त धर्मान्धता का, तलवार या लेखनी के द्वारा होनेवाले सभी उत्पीड़नों का, तथा एक ही लक्ष्य की ओर अग्रसर होनेवाले मानवों की पारस्पारिक कटुता का मृत्युनिनाद सिद्ध हो।
“हमारे मतभेद का कारण”
स्वामी विवेकानंद – विश्वधर्म-महासभा, शिकागो, 15 सितंबर 1893
मैं आप लोगों को एक छोटी सी कहानी सुनाता हूँ। अभी जिन वाग्मी वक्तामहोदय ने व्याख्यान समाप्त किया हैं, उनके इस वचन को आप ने सुना हैं कि ‘ आओ, हम लोग एक दूसरे को बुरा कहना बंद कर दें’, और उन्हे इस बात का बड़ा खेद हैं कि लोगों में सदा इतना मतभेद क्यों रहता हैं ।
परन्तु मैं समझता हूँ कि जो कहानी मैं सुनाने वाला हूँ, उससे आप लोगों को इस मतभेद का कारण स्पष्ट हो जाएगा । एक कुएँ में बहुत समय से एक मेढ़क रहता था । वह वहीं पैदा हुआ था और वहीं उसका पालन-पोषण हुआ, पर फिर भी वह मेढ़क छोटा ही था । धीरे- धीरे यह मेढ़क उसी कुएँ में रहते रहते मोटा और चिकना हो गया । अब एक दिन एक दूसरा मेढ़क, जो समुद्र में रहता था, वहाँ आया और कुएँ में गिर पड़ा ।
“तुम कहाँ से आये हो?”
“मैं समुद्र से आया हूँ।” “समुद्र! भला कितना बड़ा हैं वह? क्या वह भी इतना ही बड़ा हैं, जितना मेरा यह कुआँ?” और यह कहते हुए उसने कुएँ में एक किनारे से दूसरे किनारे तक छलाँग मारी। समुद्र वाले मेढ़क ने कहा, “मेरे मित्र! भला, सुमद्र की तुलना इस छोटे से कुएँ से किस प्रकार कर सकते हो?” तब उस कुएँ वाले मेढ़क ने दूसरी छलाँग मारी और पूछा, “तो क्या तुम्हारा समुद्र इतना बड़ा हैं?” समुद्र वाले मेढ़क ने कहा, “तुम कैसी बेवकूफी की बात कर रहे हो! क्या समुद्र की तुलना तुम्हारे कुएँ से हो सकती हैं?” अब तो कुएँवाले मेढ़क ने कहा, “जा, जा! मेरे कुएँ से बढ़कर और कुछ हो ही नहीं सकता। संसार में इससे बड़ा और कुछ नहीं हैं! झूठा कहीं का? अरे, इसे बाहर निकाल दो।”
यही कठिनाई सदैव रही हैं।
मैं हिन्दू हूँ। मैं अपने क्षुद्र कुएँ में बैठा यही समझता हूँ कि मेरा कुआँ ही संपूर्ण संसार हैं। ईसाई भी अपने क्षुद्र कुएँ में बैठे हुए यही समझता हूँ कि सारा संसार उसी के कुएँ में हैं। और मुसलमान भी अपने क्षुद्र कुएँ में बैठा हुए उसी को सारा ब्रह्माण्डमानता हैं। मैं आप अमेरिकावालों को धन्य कहता हूँ, क्योकि आप हम लोगों के इनछोटे छोटे संसारों की क्षुद्र सीमाओं को तोड़ने का महान् प्रयत्न कर रहे हैं, और मैं आशा करता हूँ कि भविष्य में परमात्मा आपके इस उद्योग में सहायता देकर आपका मनोरथ पूर्ण करेंगे ।
हिन्दू धर्म – 19 सित. 1893 | Paper On Hinduism [19-Sep-1893]
स्वामी विवेकानंद – विश्वधर्म-महासभा, शिकागो, 19 सितंबर 1893
प्रागैतिहासिक युग से चले आने वाले केवल तीन ही धर्म आज संसार में विद्यमान हैं – हिन्दू धर्म, पारसी धर्म और यहूदी धर्म । उनको अनेकानेक प्रचण्ड आघात सहने पड़े हैं, किन्तु फिर भी जीवित बने रहकर वे अपनी आन्तरिक शक्ति का प्रमाण प्रस्तुत करते हैं । पर जहाँ हम यह देखते हैं कि यहूदी धर्म ईसाई धर्म को आत्मसात् नहीं कर सका, वरन् अपनी सर्वविजयिनी दुहिता – ईसाई धर्म – द्वारा अपने जन्म स्थान से निर्वासित कर दिया गया, और केवल मुट्ठी भर पारसी ही अपने महान् धर्म की गाथा गाने के लिए अब अवशिष्ट हैं, – वहॉँ भारत में एक के बाद एक न जाने कितने सम्प्रदायों का उदय हुआ और उन्होंने वैदिक धर्म को जड़ से हिला दिया ; किन्तु भयंकर भूकम्प के समय समुद्रतट के जल के समान वह कुछ समय पश्चात् हजार गुना बलशाली होकर सर्वग्रासी आप्लावन के रूप में पुनः लौटने के लिए पीछे हट गया ; और जब यह सारा कोलाहल शान्त हो गया, तब इन समस्त धर्म-सम्प्रदायों को उनकी धर्ममाता ( हिन्दू धर्म ) की विराट् काया ने चूस लिया, आत्मसात् कर लिया और अपने में पचा डाला ।
वेदान्त दर्शन की अत्युच्च आध्यात्मिक उड़ानों से लेकर — आधुनिक विज्ञान के नवीनतम आविष्कार जिसकी केवल प्रतिध्वनि मात्र प्रतीत होते हैं, मूर्तिपूजा के निम्नस्तरीय विचारों एवं तदानुषंगिक अनेकानेक पौराणिक दन्तकथाओं तक, और बौद्धौं के अज्ञेयवाद तथा जैमों के निरीश्वरवाद — इनमें से प्रत्येक के लिए हिन्दू धर्म में स्थान हैं ।
तब यह प्रश्न उठता हैं कि वह कौन सा सामान्य बिन्दु हैं, जहाँ पर इतनी विभिन्न दिशाओं में जानेवाली त्रिज्याएँ केन्द्रस्थ होती हैं ? वह कौन सा एक सामान्य आधार हैं जिस पर ये प्रचण्ड विरोधाभास आश्रित हैं? इसी प्रश्न का उत्तर देने का अब मैं प्रयत्न करूँगा ।
हिन्दू जाति ने अपना धर्म श्रुति — वेदों से प्राप्त किया हैं । उसकी धारणा हैं कि वेद अनादि और अनन्त हैं: श्रोताओ को, सम्भव हैं, यब बात हास्यास्पद लगे कि कोई पुस्तक अनादि और अनन्त कैसे हो सकती हैं । किन्तु वेदों का अर्थ कोई पुस्तक हैं ही नहीं । वेदों का अर्थ हैं , भिन्न भिन्न कालों में भिन्न भिन्न व्यक्तियों द्वारा आविष्कृत आध्यात्मिक सत्यों का संचित कोष । जिस प्रकार गुरुत्वाकर्षण का सिद्धांत मनुष्यों के पता लगने से पूर्व भी अपना काम करता चला आया था और आज यदि मनुष्यजाति उसे भूल जाए, तो भी वह नीयम अपना काम करता रहेगा , ठीक वही बात आध्यात्मिक जगत् का पालन करनेवाले नियमों के सम्बन्ध में भी हैं । एक आत्मा का दूसरी आत्मा के साथ और जीवात्मा का आत्माओं के परम पिता के साथ जो नैतिक तथा आध्यात्मिक सम्बन्ध हैं, वे उनके आविष्कार के पूर्व भी थे और हम यदि उन्हें भूल भी जाएँ, तो बने रहेंगे ।
इव नियमों या सत्यों का आविष्कार करनेवाले ऋषि कहलाते हैं और हम उनको पूर्णत्व तक पहुँची हुई आत्मा मानकर सम्मान देते हैं । श्रोताओं को यह बतलाते हुए मुझे हर्ष होता हैं कि इन महानतम ऋषियों में कुछ स्त्रियाँ भी थीं ।
यहाँ यह कहा जा सकता हैं कि ये नियम, नियम के रूप में अनन्त भले ही हैं, पर इनका आदि तो अवश्य ही होना चाहिए । वेद हमें यह सिखाते हैं कि सृष्टि का न आदि हैं न अन्त । विज्ञान ने हमें सिद्ध कर दिखाया हैं कि समग्र विश्व की सारी ऊर्जा-समष्टि का परिमाण सदा एक सा रहता हैं । तो फिर, यदि ऐसा कोई समय था , जब कि किसी वस्तु का आस्तित्व ही नहीं था , उस समय यह सम्पूर्ण ऊर्जा कहाँ थी ? कोई कोई कहता हैं कि ईश्वर में ही वह सब अव्यक्त रूप में निहित थी । तब तो ईश्वर कभी अव्यक्त और कभी व्यक्त हैं; इससे तो वह विकारशील हो जाएगा । प्रत्येक विकारशील पदार्थ यौगिक होता हैं और हर यौगिक पदार्थ में वह परिवर्तन अवश्वम्भावी हैं, जिसे हम विनाश कहते हैं। इस तरह तो ईश्वर की मृत्यु हो जाएगी, जो अनर्गल हैं । अतः ऐसा समय कभी नहीं था, जब यह सृष्टि नहीं थी ।
मैं एक उपमा दूँ; स्रष्टा और सृष्टि मानो दो रेखाएँ हैं, जिनका न आदि हैं , न अन्त, और जो समान्तर चलती हैं। ईश्वर नित्य क्रियाशील विधाता हैं, जिसकी शक्ति से प्रलयपयोधि में से नित्यशः एक के बाद एक ब्रह्माण्ड का सृजन होता हैं, वे कुछ काल तक गतिमान रहते हैं, और तत्पश्चात् वे पुनः विनष्ट कर दिये जाते हैं । ‘ सूर्याचन्द्रमसौ धाता यथापूर्वकल्पयत् ‘ अर्थात इस सूर्य और इस चन्द्रमा को विधाता ने पूर्व कल्पों के सूर्य और चन्द्रमा के समान निर्मित किया हैं — इस वाक्य का पाठ हिन्दू बालक प्रतिदिन करता हैं ।
यहाँ पर मैं खड़ा हूँ और अपनी आँखें बन्द करके यदि अपने अस्तित्व — ‘मैं’, ‘मैं’, ‘मैं’ को समझने का प्रयत्न करूँ , तो मुझमे किस भाव का उदय होता हैं ? इस भाव का कि मैं शरीर हूँ । तो क्या मैं भौतिक पदार्थों के संघात के सिवा और कुछ नहीं हूँ ? वेदों की घोषणा हैं — ‘नहीं, मैं शरीर में रहने वाली आत्मा हूँ , मैं शरीर नहीं हूँ । शरीर मर जाएगा, पर मैं नहीं मरूँगा । मैं इस शरीर में विद्यमान हूँ और इस शरीर का पतन होगा, तब भी मैं विद्यमान रहूँगा ही । मेरा एक अतीत भी हैं ।’ आत्मा की सृष्टि नहीं हुई हैं, क्योकि सृष्टि का अर्थ हैं, भिन्न भिन्न द्रव्यों का संघात, और इस संघात का भविष्य में विघटन अवश्यम्भावी हैं । अतएव यदि आत्मा का सृजन हुआ, तो उसकी मृत्यु भी होनी चाहिए । कुछ लोग जन्म से ही सुखी होते हैं और पूर्ण स्वास्थ्य का आनन्द भोगते हैं, उन्हे सुन्दर शरीर , उत्साहपूर्ण मन और सभी आवश्यक सामग्रियाँ प्राप्त रहती हैं । दूसरे कुछ लोग जन्म से ही दुःखी होते हैं, किसी के हाथ या पाँव नहीं होते , तो कोई मूर्ख होते हैं, और येन केन प्रकारेण अपने दुःखमय जीवन के दिन काटते हैं। ऐसा क्यों ? यदि सभी एक ही न्यायी और दयालु ईश्वर ने उत्पन्न किये हों , तो फिर उसने एक को सुखी और दुसरे को दुःखी क्यों बनाया ? ईश्वर ऐसा पक्षपाती क्यों हैं ? फिर ऐसा मानने से बात नहीं सुधर सकती कि जो वर्तमान जीवनदुःखी हैं, भावी जीवन में पूर्ण सुखी रहेंगे । न्यायी और दयालु ईश्वर के राज्य में मनुष्य इस जीवन में भी दुःखी क्यों रहे ?
दूसरी बात यह हैं कि सृष्टि – उत्पादक ईश्वर को मान्यता देनेवाला सिद्धान्त वैषम्य की कोई व्याख्या नहीं करता, बल्कि वह तो केवल एक सर्वशक्तिमान् पुरुष का निष्ठुर आदेश ही प्रकट करता हैं। अतएव इस जन्म के पूर्व ऐसे कारण होने ही चाहिए, जिनके फलस्वरुप मनुष्य इस जन्म में सुखी या दुःखी हुआ करते हैं । और ये कारण हैं, उसके ही पुर्वनुष्ठित कर्म ।
क्या मनुष्य के शरीर और मन की सारी प्रवृत्तियों की व्याख्या उत्तराधिकार से प्राप्त क्षमता द्वारा नहीं हो सकती ? यहाँ जड़ और चैतन्य (मन) , सत्ता की दो समानान्तर रेखाएँ हैं । यदि जड़ और जड़ के समस्त रूपान्तर ही, जो कुछ यहाँ उसके कारण सिद्ध हो सकते, तो फ़िर आत्मा के अस्तित्व को मानने की कोई आवश्यकता ही न रह जाती । पर यह सिद्ध नहीं किया जा सकता कि चैतन्य (विचार) का विकास जड़ से हुआ हैं, और यदि कोई दार्शनिक अद्वैतवाद अनिवार्य हैं, तो आध्यात्मिक अद्वैतवाद निश्चय ही तर्कसंगत हैं और भौतिक अद्वैतवाद से किसी भी प्रकार कम वाँछनीय नहीं; परन्तु यहाँ इन दोनों की आवश्यकता नहीं हैं ।
हम यह अस्वीकार नहीं कर सकते कि शरीर कुछ प्रवृत्तियों को आनुवंशिकता से प्राप्त करता है ; किन्तु ऐसी प्रवृत्तियों का अर्थ केवल शरीरिक रूपाकृति से है, जिसके माध्यम से केवल एक विशेष मन एक विशेष प्रकार से काम कर सकता है । आत्मा की कुछ ऐसी विशेष प्रकृत्तियाँ होती है, जिसकी उत्पत्ति अतीत के कर्म से होती है । एक विशेष प्रवृत्तिवाली जीवात्मा ‘ योग्यं योग्येन युज्यते ‘ इस नियमानुसार उसी शरीर में जन्म ग्रहण करती है, जो उस प्रवृत्ति के प्रकट करने के लिए सब से उपयुक्त आधार हो । यह विज्ञानसंगत है, क्योंकि विज्ञान हर प्रवृत्ति की व्याख्या आदत से करना चाहता है, और आदत आवृत्तियों से वनती है । अतएव नवजात जीवात्मा की नैसर्गिक आदतों की व्याख्या के लिए आवृत्तियाँ अनिवार्य हो जाती है । और चूँकि वे प्रस्तुत जीवन में प्राप्त नहीं होती, अतः वे पिछले जीवनों से ही आयी होंगी ।
एक और दृष्टिकोण हैं । ये सभी बातें यदि स्वयंसिद्ध भी मान लें , तो में अपने पूर्व जन्म की कोई बात स्मरण क्यों नहीं रख पाता ? इसका समाधान सरल हैं । मैं अभी अंग्रेजी बोल रहा हूँ । वह मेरी मातृ भाषा नहीं हैं । वस्तुतः इस समय मेरी मातृभाषा का कोई भी शब्द मेरे चित्त में उपस्थित नहीं हैं , पर उन शब्दों को सामने लोने का थोड़ा प्रयत्न करते ही वे मन में उमड़ आते हैं । इससे यही सिद्ध होता है कि चेतना मानससागर की सतह मात्र हैं और भीतर, उसकी गहराई में, हमारी समस्त अनुभवराशि संचित हैं । केवल प्रयत्न और उद्यम किजिए, वे सब ऊपर उठ आएँगे । और आप अपने पूर्व जन्मों का भी ज्ञान प्राप्त कर सकेंगे ।
यह प्रत्यक्ष एवं प्रतिपाद्य प्रमाण हैं । सत्यसाधन ही किसी परिकल्पना का पूर्ण प्रमाण होता हैं , और ऋषिगण यहाँ समस्त संसार को एक चुनौती दे रहे हैं । हमने उस रहस्य का पता लगा लिया हैं , जिससे स्मृतिसागर की गम्भीरतम गहराई तक मन्थन किया जा सकता हैं — उसका प्रयोग कीजिए और आप अपने पूर्व जन्मों का सम्पूर्ण संस्मृति प्राप्त कर लेंगे ।
अतएव हिन्दू का यह विश्वास हैं कि वह आत्मा हैं । ‘ उसको शस्त्र काट नहीं सकते, अग्नि दग्ध नहीं कर सकती, जल भीगो नहीं सकता और वायु सुखा नही सकती । ‘ — गीता ॥२.२३॥ हिन्दुओं की यह धारणा हैं कि आत्मा एक ऐसा वृत्त हैं जिसकी कोई परिधि नहीं हैं, किन्तु जिसका केन्द्र शरीर में अवस्थित हैं; और मृत्यु का अर्थ हैं, इस केन्द्र का एक शरीर से दूसरे शरीर में स्थानान्तरित हो जाना । यह आत्मा जड़ की उपाधियों से बद्ध नहीं हैं । वह स्वरूपतः नित्य-शुद्ध-बुद्ध-मुक्तस्वभाव हैं । परन्तु किसी कारण से वह अपने को जड़ से बँधी हुई पाती हैं , और अपने को जड़ ही समझती हैं ।
अब दूसरा प्रश्न हैं कि यह विशुद्ध, पूर्ण और विमुक्त आत्मा इस प्रकार जड़ का दासत्व क्यों करती हैं ? स्वमं पूर्ण होते हुए भी इस आत्मा को अपूर्ण होनें का भ्रम कैसे हो जाता हैं? हनें यह बताया जाता हैं कि हिन्दू लोग इस प्रश्न से कतरा जाते हैं ऐर कह देते क् ऐसा प्रश्न हो ही नहीं सकता । कुछ विचारक पूर्णप्राय सत्ताओं की कल्पना कर लेते हैं और इस रिक्त को भरने के लिए बड़े हड़े वैज्ञानिक नामों का प्रयोग करते हैं । परन्तु नाम दे देना व्याख्या नहीं हैं । प्रश्न ज्यों का त्यों ही बना रहता हैं । पूर्ण ब्रह्म पूर्णप्राय अथवा अपूर्ण कैसे हो सकता हैं ; शुद्ध, निरपेक्ष ब्रह्म अपने स्वभाव को सूक्ष्मातिसूक्ष्म कण भर भी परिवर्तित कैसे कर सकता हैं ? पर हिन्दू ईमानदार हैं । वह मिथ्या तर्क का सहारा नहीं लेना चाहता । पुरुषोचित रूप में इस प्रश्न का सामना करने का साहस वह रखता हैं, और इस प्रश्न का उत्तर देता हैं , “मैं नहीं जानता । मैं नहीं जानता कि पूर्ण आत्मा अपने को अपूर्ण कैसे समझने लगी, जड़पदार्थों के संयोग से अपने को जड़नियमाधीन कैसे मानने लगी। ” पर इस सब के बावजूद तथ्य जो हैं , वही रहेगा । यह सभी की चेतना का एक तथ्य हैं कि प्रत्येक व्यक्ति अपने को शरीर मानता हैं । हिन्दू इस बात की व्याख्या करने का प्रयत्न नहीं करता कि मनुष्य अपने को शरीर क्यों समझता हैं । ‘ यह ईश्वर की इच्छा है ‘, यह उत्तर कोई समाधान नहीं हैं । यह उत्तर हिन्दू के ‘मैं नहीं जानता’ के सिवा और कुछ नहीं हैं ।
अतएव मनुष्य की आत्मा अनादि और अमर हैं, पूर्ण और अनन्त हैं, और मृत्यु का अर्थ हैं — एक शरीर से दूसरे शरीर में केवल केन्द्र-परिवर्तन । वर्तमान अवस्था हमारे पूर्वानुष्ठित कर्मों द्वारा निश्चित होती हैं और भविष्य, वर्तमान कर्मों द्वारा । आत्मा जन्म और मृत्यु के चक्र में लगातार घूमती हुई कभी ऊपर विकास करती हैं, कभी प्रत्यागमन करती हैं । पर यहाँ एक दूसरा प्रश्न उठता हैं — क्या मनुष्य प्रचण्ड तूफान में ग्रस्त वह छोटी सी नौका हैं , जो एक क्षण किसी वेगवान तरंग के फेनिल शिखर पर चढ़ जाती हैं और दूसरे क्षण भयानक गर्त में नीचे ढकेल दी जाती हैं, अपने शुभ और अशुभ कर्मों की दया पर केवल इधर-उधर भटकती फिरती हैं ; क्या वह कार्य-कारण की सततप्रवाही, निर्मम, भीषण तथा गर्जनशील धारा में पड़ा हुआ अशक्त, असहाय भग्न पोत हैं, क्या वह उस कारणता के चक्र के नीचे पड़ा हुआ एक क्षुद्र शलभ हैं, जो विधवा के आँसुओं तथा अनाथ बालक की आहों की तनिक भी चिन्ता न करते हिए, अपने मार्ग में आनेवाली सभी वस्तुओं को कुचल डालता हैं ? इस प्रकार के विचार से अन्तःकरण काँप उठता हैं , पर यही प्रकृति का नियम हैं । तो फिर क्या कोई आशा ही नहीं हैं ? क्या इससे बचने का कोई मार्ग नहीं हैं ? — यही करुण पुकार निराशाविह्वल हृदय के अन्तस्तल से उपर उठी और उस करुणामय के सिंहासन तक जा पहुँची । वहाँ से आशा तथा सान्त्वना की वाणी निकली और उसने एक वैदिक ऋषि को अन्तःस्फूर्ति प्रदान की, और उसने संसार के सामने खड़े होकर तूर्यस्वर में इस आनन्दसन्देश की घोषणा की : ‘ हे अमृत के पुत्रों ! सुनो ! हे दिव्यधामवासी देवगण !! तुम भी सुनो ! मैंने उस अनादि, पुरातन पुरुष को प्राप्त कर लिया हैं, तो समस्त अज्ञान-अन्धकार और माया से परे है । केवल उस पुरुष को जानकर ही तुम मृत्यु के चक्र से छूट सकते हो । दूसरा कोई पथ नहीं ।’ — श्वेताश्वतरोपनिषद् ॥ २.५, ३-८ ॥ ‘अमृत के पुत्रो ‘ — कैसा मधुर और आशाजनक सम्बोधन हैं यह ! बन्धुओ ! इसी मधुर नाम – अमृत के अधिकारी से – आपको सम्बोधित करूँ, आप इसकी आज्ञा मुझे दे । निश्चय ही हिन्दू आपको पापी कहना अस्वीकार करता हैं । आप ईश्वर की सन्तान हैं , अमर आनन्द के भागी हैं, पवित्र और पूर्ण आत्मा हैं, आप इस मर्त्यभूमि पर देवता हैं । आप भला पापी ? मनुष्य को पापी कहना ही पाप बैं , वह मानव स्वरूप पर घोर लांछन हैं । आप उठें ! हे सिंहो ! आएँ , और इस मिथ्या भ्रम को झटक कर दूर फेक दें की आप भेंड़ हैं । आप हैं आत्मा अमर, आत्मा मुक्त, आनन्दमय और नित्य ! आप जड़ नहीं हैं , आप शरीर नहीं हैं; जड़ तो आपका दास हैं , न कि आप हैं जड़ के दास ।
अतः वेद ऐसी घोषणा नहीं करते कि यह सृष्टि – व्यापार कतिपय निर्मम विधानों का सघात हैं , और न यह कि वह कार्य-कारण की अनन्त कारा हैं ; वरन् वे यह घोषित करते हैं कि इन सब प्राकृतिक नियमों के मूल नें , जड़तत्त्व और शक्ति के प्रत्येक अणु-परमाणु में ओतप्रोत वही एक विराजमान हैं, ‘ जिसके आदेश से वायु चलती हैं, अग्नि दहकती हैं, बादल बरसते हैं और मृत्यु पृथ्वी पर नाचती हैं। ‘ — कठोपनिषद् ॥२.३.३॥
और उस पुरुषत्व का स्वरूप क्या हैं ? वह सर्वत्र हैं, शुद्ध, निराकार, सर्वशक्तिमान् हैं, सब पर उसकी पूर्ण दया हैं । ‘तू हमारा पिता हैं, तू हमारी माता हैं, तू हमारा परम प्रेमास्पद सखा हैं, तू ही सभी शक्तियों का मूल हैं; हमैं शक्ति दे । तू ही इन अखिल भुवनों का भार वहन करने वाला हैं; तू मुझे इस जीवन के क्षुद्र भार को वहन करने में सहायता दे ।’ वैदिक ऋषियों ने यही गाया हैं । हम उसकी पूजा किस प्रकार करें ? प्रेम के द्वारा ।’ ऐहिक तथा पारत्रिक समस्त प्रिय वस्तुओं से भी अधिक प्रिय जानकर उस परम प्रेमास्पद की पूजा करनी चाहिए ।’
वेद हमें प्रेम के सम्वन्ध में इसी प्रकार की शिक्षा देते हैं । अब देखें कि श्रीकृष्ण ने, जिन्हें हिन्दू लोग पृथ्वी पर ईश्वर का पूर्णावतार मानते हैं , इस प्रेम के सिद्धांत का पूर्ण विकास किस प्रकार किया हैं और हमें क्या उपदेश दिया हैं ।
उन्होने कहा हैं कि मनुष्य को इस संसार में पद्मपत्र की तरह रहना चाहिए । पद्मपत्र जैसे पानी में रहकर भी उससे नहीं भीगता, उसी प्रकार मनुष्य को भी संसार में रहना चाहिए — उसका हृदय ईश्वर में लगा रहे और हाथ कर्म में लगें रहें ।
इहलोक या परलोक में पुरस्कार की प्रत्याशा से ईश्वर से प्रेम करना बुरी बात नहीं, पर केवल प्रेम के लिए ही ईश्वर से प्रेम करना सब से अच्छा हैं , और उसके निकट यही प्रार्थन करनी उचित हैं , ‘ हे भगवन्, मुझे न तो सम्पत्ति चाहीए, न सन्तति , न विद्या । यदि तो सहस्रों बार जन्म-मृत्यु के तक्र में पडूँगा; पर हे प्रभो , केवल इतना ही दे क् मैं फल की आशा छाड़कर तेरी भक्ति करूँ, केवल प्रेम के लिए ही तुझ पर मेरा निःस्वार्थ प्रेम हो ।’ — शिक्षाष्टक ॥४॥ श्रीकृष्ण के एक शिष्य युधिष्टर इस समय सम्राट् थे । उनके शत्रुओं ने उन्हें राजस्ंहासन से च्युत कर दीया और उन्हें अपनी सम्राज्ञी के साथ हिमालय के जंगलों में आश्रय लेना पड़ा था । वहाँ एक दिन सम्राज्ञी ने उनसे प्रश्न किया , “मनुष्यों में सर्वोपरि पुण्यवान होते पुए भी आपको इतना दुःख क्यों सहना पड़ता हैं ?” युधिष्टर ने उत्तर दिया, “महारानी, देखो, यह हिमालय कैसा भव्य और सुन्दर हैं। मैं इससे प्रेम करताहूँ। यह मुझे कुछ नहीं देता ; पर मेरा स्वभाव ही ऐसा हैं कि मैं भव्य और सुन्दर वस्तु से प्रेम करता हूँ और इसी कारण मैं उससे प्रेम करता हूँ। उसी प्रकार मैं ईश्वर से प्रेम करता हूँ। उस अखिल सौन्दर्य , समस्त सुषमा का मूल हैं । वही एक ऐसा पात्र हैं, जिससे प्रेम करना चाहिए । उससे प्रेम करना मेरा स्वभाव हैं और इसीलिए मैं उससे प्रेम करता हूँ । मैं किसी बात के लिए उससे प्रार्थना नहीं करता, मैं उससे कोई वस्तु नहीं माँगता । उसकी जहाँ इच्छा हो, मुझे रखें । मैं तो सब अवस्थाओं में केवल प्रेम ही उस पर प्रेम करना चाहता हूँ, मैं प्रेम में सौदा नहीं कर सकता ।” –महाभारत, वनपर्व ॥३१.२.५॥
वेद कहते हैं कि आत्मा दिव्यस्वरूप हैं, वह केवल पंचभूतों के बन्धन में बँध गयी हैं और उन बन्धनों के टूटने पर वह अपने पूर्णत्व को प्राप्त कर लेगीं । इस अवस्था का नाम मुक्ति हैं, जिसका अर्थ हैं स्वाधीनता — अपूर्णता के बन्धन से छुटकारा , जन्म-मृत्यु से छुटकारा ।
और यह बन्धन केवल ईश्वर की दया से ही टूट सकता हैं और वह दया पवित्र लोगों को ही प्राप्त होती हैं । अतएव पवित्रता ही उसके अनुग्रह की प्राप्ति का उपाय हैं। उसकी दया किस प्रकार काम करती हैं? वह पवित्र हृदय में अपने को प्रकाशित करता हैं । पवित्र और निर्मल मनुष्य इसी जीवल में ईश्वर दर्शन प्राप्त कर कृतार्थ हो जाता हैं । ‘तब उसकी समस्त कुटिलता नष्ट हो जाती हैं, सारे सन्देह दूर हो जाते हैं ।’ –मुण्डकोपनिषद् ॥२.२.८॥ तब वह कार्य-कारण के भयावह नियम के हाथ खिलौना नहीं रह जाता । यही हिन्दू धर्म का मूलभूत सिद्धांत हैं — यही उसका अत्सन्त मार्मिक भाव हैं । हिन्दू शब्दों और सिद्धांतों के जाल में जीना नहीं चाहता । यदि इन साधारण इन्द्रिय-संवेद्य विषयों के परे और भी कोई सत्ताएँ हैं, तो वह उनका प्रत्यक्ष अनुभव करना चाहता हैं । यदि उसमें कोई आत्मा हैं , जो जड़ वस्तु नहीं हैं, यदि कोई दयामय सर्वव्यापी विश्वात्मा हैं , तो वह उसका साक्षात्कार करेगा । वह उसे अवश्य देखेगा और मात्र उसी से समस्त शंकाएँ दूर होंगी । अतः हिन्दू ऋषि आत्मा के विषय में, ईश्वर के विषय में यही सर्वोत्तम प्रमाण देता हैं : ‘ मैंने आत्मा का दर्शन किया हैं; मैंने ईश्वर का दर्शन किया हैं ।’ और यही पूर्णत्व की एकमात्र शर्त हैं । हिन्दू धर्म भिन्न भिन्न मत-मतान्तरों या सिद्धांतों पर विश्वास करने के लिए संघर्ष और प्रयत्न में निहित नहीं हैं, वरन् वह साक्षात्कार हैं, वह केवल विश्वास कर लेना नहीं है, वह होना और बनना हैं ।
इस प्रकार हिन्दूओं की सारी साधनाप्रणाली का लक्ष्य हैं — सतत अध्यवसाय द्वारा पू्र्ण बन जाना, दिव्य बन जाना, ईश्वर को प्राप्त करना और उसके दर्शन कर लेना , उस स्वर्गस्थ पिता के समान पूर्ण जाना — हिन्दूओं का धर्म हैं । और जब मनुष्य पूर्णत्व को प्राप्त कर लेता हैं, तब क्या होता हैं ? तव वह असीम परमानन्द का जीवन व्यतीत करता हैं। जिस प्रकार एकमात्र वस्तु में मनुष्य को सुख पाना ताहिए, उसे अर्थात् ईश्वर को पाकर वह परम तथा असीम आनन्द का उपभोग करता हैं और ईश्वर के साथ भी परमानन्द का आस्वादन करता हैं ।
यहाँ तक सभी हिन्दू एकमत हैं । भारत के विविध सम्प्रदायों का यह सामान्य धर्म हैं । परन्तु पूर्ण निररेक्ष होता हैं, और निरपेक्ष दो या तीन नहीं हो सकता । उसमें कोई गुण नहीं हो सकता, वह व्यक्ति नहीं हो सकता । अतः जब आत्मा पूर्ण और निरपेक्ष हो जाती हैं, और वह ईश्वर के केवल अपने स्वरूप की पूर्णता, सत्यता और सत्ता के रूप में — परम् सत्, परम् चित्, परम् आनन्द के रूप में प्रत्यक्ष करती हैं । इसी साक्षात्कार के विषय में हम बारम्बार पढ़ा करते हैं कि उसमें मनुष्य अपने व्यक्तित्व को खोकर जड़ता प्राप्त करता हैं या पत्थर के समान बन जाता हैं ।
‘जिन्हें चोट कभी नहीं लगी हैं, वे ही चोट के दाग की ओर हँसी की दृष्टि से देखते हैं ।’ मैं आपको बताता हूँ कि ऐसी कोई बात नहीं होती । यदि इस एक क्षुद्र शरीर की चेतना से इतना आनन्द होता हैं, तो दो शरीरों की चेतना का आनन्द अधिक होना ताहिए ,और उसी प्रकार क्रमशः अनेक शरीरों की चेतना के साथ आनन्द की मात्रा भी अधिकाधिक बढ़नी चाहिए, और विश्वचेतना का बोध होने पर आनन्द की परम अवस्था प्राप्त हो जाएगी ।
अतः उस असीम विश्वव्यक्तित्व की प्राप्ति के लिए इस कारास्वरूप दुःखमय क्षुद्र व्यक्तित्व का अन्त होना ही चाहिए । जब मैं प्राण स्वरूप से एक हो जाऊँगा , तभी मृत्यु के हाथ से मेरा छुटकारा हो सकता हैं; जब मैं आनन्दस्वरूप हो जाऊँगा, तभी दुःख का अन्त हो सकता हैं; जब मैं ज्ञानस्वरूप हो जाऊँगा, तभी सब अज्ञान का अन्त हो सकता हैं, और यह अनिवार्य वैज्ञानिक निष्कर्ष भी हैं । विज्ञान ने मेरे निकट यह सिद्ध कर दिया हैं कि हमारा यह भौतिक व्यक्तित्व भ्रम मात्र हैं, वास्तव मेंमेरा यह शरीर एक अविच्छन्न जड़सागर में एक क्षुद्र सदा परिवर्तित होता रहने वाला पिण्ड हैं , और मेरे दूसरे पक्ष — आत्मा — के सम्बन्ध में अद्वैत ही अनिवार्य निष्कर्ष हैं ।
विज्ञान एकत्व की खोज के सिवा और कुछ नहीं हैं । ज्यों ही कोई विज्ञान पूर्ण एकता तक पहुँच जाएगा, त्यों ही उसकी प्रगति रूक जाएगी; क्योंकि तब वह अपने लक्ष्य को प्राप्त कर लेगा । उदाहरणार्थ, रसायनशास्त्र यदि एक बार उस मूलतत्तव का पता लगा ले, जिससे और सब द्रव्य बन सकते हैं, तो फिर वह आगे नहीं बढ़ सकेगा । भौतिक शास्त्र जब उस मूल शक्ति का पता लगा लेगा, अन्य शक्तियाँ जिसकी अभिव्यक्ति हैं , तब वह रुक जाएगा । वैसे ही, धर्मशास्त्र भी उस समय पूर्णता को प्राप्त कर लेगा, जब वह उसको खोज लेगा, जो इस मृत्यु के उस लोक में अकमात्र जीवन हैं, जो इस परिवर्तनशील जगत् का शाश्वत आधार हैं, जो एकमात्र परमात्मा हैं, अन्य सब आत्माँ जिसकी प्रतीयमान अभिव्यक्तियाँ हैं । इस प्रकार अनेकता और द्वैत में से होते हिए इस परम अद्वैत की प्राप्ति होती हैं । धर्म इससे आगे नहीं जा सकता । यही समस्त विज्ञानों का चरम लक्ष्य हैं ।
समग्र विज्ञान अन्ततः इसी निष्कर्ष पर अनिवार्यतः पहुँचेंगे । आज विज्ञान का शब्द अभिव्यक्ति हैं, सृष्टि नहीं; और हिन्दू को यह देखकर बड़ी प्रसन्नता हैं कि जिसको वह अपने अन्तस्तल में इतने युगों से महत्त्व देता रहा हैं, अब उसी की शिक्षा अधिक सशक्त भाषा में विज्ञान के नूतनतम निष्कर्षों के अतिरिक्त प्रकाश में दी जा रही हैं । अब हम दर्शन की अभीप्साओं से उतरकर ज्ञानरहित लोगों के धर्म की ओर आते हैं । यह मैं प्रारम्भ में ही आप को बता देना चाहता हूँ कि भारतवर्ष में अनेकेश्वरवाद नहीं हैं । प्रत्येक मन्दिर में यदि कोई खड़ा होकर सुने , तो यही पाएगा कि भक्तगण सर्वव्यापित्व आदि ईश्वर के सभी गुणों का आरोप उन मूर्तियों में करते हैं । यह अनेकेश्वरवाद नहीं हैं, और न एकदेववाद से ही इस स्थिति की व्याख्या हो सकती हैं । ‘ गुलाब को चाहे दूसरा कोई भी नाम क्यों न दे दिया जाए, पर वह सुगन्धि तो वैसी ही मधुर देता रहेगा ।’ नाम ही व्याख्या नहीं होती ।
बचपन की एक बात मुझे यहाँ याद आती हैं । एक ईसाई पादरी कुछ मनुष्यों की भीड़ जमा करके धर्मोंपदेश कर रहा था । वहुतेरी मजेदार बातों के साथ वह पादरी यह भी कह गया , “अगर मैं तुम्हारी देवमूर्ति को एक डंडा लगाऊँ, तो वह मेरा क्या कर सकती हैं ?” एक श्रोता ने चट चुभता सा जवाब दे डाला, “अगर मैं तुम्हारे ईश्वर को गाली दे दूँ, तो वह मेरा क्या कर सकता हैं ?” पादरी बोला, “मरने के बाद वह तुम्हें सजा देगा ।” हिन्दू भी तनकर बोल उठा, ” तुम मरोगे, तब ठीक उसी तरह हमारी देवमूर्ति भी तुम्हें दण्ड देगी ।”
वृक्ष अपने फलों से जाना जाता हैं । जब मूर्तिपूजक कहे जानेवाले लोगों में ऐसे मनुष्यों को पाता हूँ, जिनकी नैतिकता, आध्यात्मिकता और प्रेम अपना सानी नहीं रखते, तब मैं रुक जाता हूँ और अपने से यही पूछता हूँ — ‘क्या पाप से भी पवित्रता की उत्पत्ति हो सकती हैं ?’
अन्धविश्वास मनुष्य का महान् शत्रु हैं, पर धर्मान्धता तो उससे भी बढ़कर हैं । ईसाई गिरजाघर क्यों जाता हैं ? क्रूस क्यों पवित्र हैं? प्रार्थना के समय आकाश की ओर मुँह क्यों किया जाता हैं ? कैथोलिक ईसाइयों के गिरजाघरों में इतनी मूर्तियाँ क्यों रहा करती हैं ? प्रोटेस्टेन्ट ईसाइयों के मन में प्रार्थना के समय इतनी मूर्तियाँ क्यों रहा करती हैं ? मेरे भाइयो ! मन में किसी मूर्ति के आए कुछ सोच सकना उतना ही असम्भव हैं, जितना श्वास लिये बिना जीवित रहना । साहचर्य के नियमानुसार भौतिक मूर्ति से मानसिक भावविशेष का उद्दीपन हो जाता हैं , अथवा मन में भावविश्ष का उद्दीपन होमे से तदनुरुप मूर्तिविशेष का भी आविर्भाव होता हैं । इसीलिए तो हिन्दू आराधना के समय बाह्य प्रतीक का उपयोग करता हैं । वह आपको बतलाएगा कि यह बाह्य प्रतीक उसके मन को ध्यान के विषय परमेश्वर में एकाग्रता से स्थिर रखने में सहायता देता हैं । वह भी यह बात उतनी ही अच्छी तरह से जानता हैं, जितना आप जानते हैं कि वह मूर्ति न तो ईश्वर ही हैं और न सर्वव्यापी ही । और सच पूछिए तो दुनिया के लोग ‘सर्वव्यापीत्व’ का क्या अर्थ समझते हैं ? वह तो केवल एक शव्द या प्रतीक मात्र हैं । क्या परमेश्वर का भी कोई क्षेत्रफल हैं ? यदि नहीं, तो जिस समय हम सर्वव्यापी शब्द का उच्चारण करते हैं , उस समय विस्तृत आकाश या देश की ही कल्पना करने के सिवा हम और क्या करते हैं ? अपनी मानसिक सरंचना के नियमानुसार, हमें किसी प्रकार अपनी अनन्तता की भावना को नील आकाश या अपार समुद्र की कल्पना से सम्बद्ध करना पड़ता हैं; उसी तरह हम पवित्रता के भाव को अपने स्वभावनुसार गिरजाघर या मसजिद या क्रूस से जोड़ लेते हैं । हिन्दू लोग पवित्रता, नित्यत्व, सर्वव्यापित्व आदि आदि भावों का सम्बन्ध विभिन्न मूर्तियों और रूपों से जोड़ते हैं ? अन्तर यह हैं कि जहाँ अन्य लोग अपना सारा जीवन किसी गिरजाघर की मूर्ति की भक्ति में ही बिता देते हैं और उससे आगे नहीं बढ़ते , क्योकि उनके लिए तो धर्म का अर्थ यही हैं कि कुछ विशिष्ट सिद्धान्तों को वे अपनी बुद्धि द्वारा स्वीक-त कर लें और अपने मानववन्धुओं की भलाई करते रहें — वहाँ एक हिन्दू की सारी धर्मभावना प्रत्यक्ष अनुभूति या आत्मसाक्षात्कार में केन्द्रीभूत होती हैं । मनुष्य को ईश्वर का साक्षात्कार करके दिव्य बनना हैं । मूर्तियाँ, मन्दिर , गिरजाघर या ग्रन्थ तो धर्नजीवन में केवल आघार या सहायकमात्र हैं; पर उसे उत्तरोतर उन्नति ही करनी चाहिए ।
मनुष्य को कहीं पर रुकना नहीं चाहिए । शास्त्र का वाक्य हैं कि ‘बाह्य पूजा या मूर्तिपूजा सबसे नीचे की अवस्था हैं; आगे बड़ने का प्रयास करते समय मानसिक प्रार्थना साधना की दूसरी अवस्था हैं, और सबसे उच्च अवस्था तो वह हैं, जब परमेश्वर का साक्षात्कार हो जाए ।’ — महानिर्वाणतन्त्र ॥४.१२ ॥ देखिए, वही अनुरागी साधक, जो पहले मूर्ति के सामने प्रणत रहता था, अब क्या कह रहा हैं — ‘सूर्य उस परमात्मा को प्रकाशित नहीं कर सकता, न चन्द्रमा या तारागण ही; वब विद्युत प्रभा भी परमेश्वर को उद्भासित नहीं कर सकती, तब इस सामान्य अग्िन की बात ही क्या ! ये सभी इसी परमेश्वर के कारण प्रकाशित होते हैं ।’ — कठोपनिषद् ॥२.२.१५॥ पर वह किसी की मूर्ति को गाली नहीं देता और न उसकी पूजा को पाप ही बताता हैं । वह तो उसे जीवन की एक आवश्यक अवस्था जानकर उसको स्वीकार करता हैं । ‘बालक ही मनुष्य का जनक हैं ।’ तो क्या किसी वृद्ध पुरुष का वचपन या युवावस्था को पाप या बुरा कहना उचित होगा ?
यदि कोई मनुष्य अपने दिव्य स्वरूप को मूर्ति की सहायता से अनुभव कर सकता हैं , तो क्या उसे पाप कहना ठीक होगा ? और जब वह अवस्था से परे पहुँच गया हैं , तब भी उसके लिए मूर्ति पूजा को भ्रमात्मक कहना उचित नहीं हैं । हिन्दू की दृष्टि में मनुष्य भ्रम से सत्य की ओर नहीं जा रहा हैं, वह तो सत्य से सत्य की ओर, निम्न श्रेणी के सत्य से उच्च श्रेणी के सत्य की ओर अग्रसर हो रहा हैं । हिन्दू के मतानुसार निम्न जड़-पूजावाद से लेकर सर्वोच्च अद्वैतवाद तक जितने धर्म हैं, वे सभी अपने जन्म तथा साहर्चय की अवस्था द्वारा निर्धारित होकर उस असीम के ज्ञान तथा उपलब्धि के निमित्त मानवत्मा के विविध प्रयत्न हैं ,और यह प्रत्येक उन्नति की एक अवस्था को सूचित करता हैं । प्रत्येक जीव उस युवा गरुड़ पक्षी के समान हैं , जो धीरे धीरे उँचा उ़ड़ता हुआ तथा अधिकाधिक शक्तिसंपादन करता हुआ अन्त नें उस भास्वर सूर्य तक पहुँच जाता हैं ।
अनेकता में एकता प्रकृति का विधान हैं और हिन्दुओं ने इसे स्वीकार किया हैं । अन्य प्रत्येक धर्म में कुछ निर्दिष्ट मतवाद विधिबद्ध कर दिये गये हैं और सारे समाज को उन्हें मानना अनिवार्य कर दिया जाता हैं । वह समाज के समाने केवल एक कोट रख देता हैं, जो जैक, जाँन और हेनरी, सभी को ठीक होना चाहिए । यदि जाँन या हेनरी के शरीर में ठीक नहीं आता, तो उसे अपना तन ढँकने के लिए बिना कोट के ही रहना होगा । हिन्दुओं मे यह जान लिया हैं कि निरपेक्ष ब्रह्मतत्त्व का साक्षात्कार , चिन्तन या वर्णन सापेक्ष के सहारे ही हो सकता हैं , और मूर्तियाँ, क्रूस या नवोदित चन्द्र केवल विभिन्न प्रतीक हैं, वे मानो बहुत सी खूँटियाँ हैं , जिनमें धार्मिक भावनाएँ लटकायी जाती हैं । ऐसा नहीं हैं कि इन प्रतीकों की आवश्यकता हर एक के लिए हो , किन्तु जिनको अपने लिए इन प्रतीकों की सहायता की आवश्यकता नहीं हैं, उन्हें यह कहने का अधिकार नहीं हैं कि वे गलत हैं । हिन्दू धर्म में वे अनिवार्य नहीं हैं ।
एक बात आपको अवश्य बतला दूँ । भारतवर्ष में मूर्ति पूजा कोई जधन्य बात नहीं हैं । वह व्यभिचार की जननी नहीं हैं । वरन् वह अविकसित मन के लिए उच्च आध्यात्मिक भाव को ग्रहण करने का उपाय हैं । अवश्य, हिन्दुओं के बहुतेरे दोष हैं , उनके कुछ अपने अपवाद हैं, पर यह ध्यान रखिए कि उनके दोष अपने शरीर को ही उत्पीड़ित करने तक सीमित हैं , वे कभी अपने पड़ोसियों का गला नहीं काटने जाते । एक हिन्दू धर्मान्ध भले ही चिता पर अपने आप के जला डाले , पर वह विधर्मियों को जलाने के लिए ‘इन्क्विजिशन ‘ की अग्नि कभी भी प्रज्वलित नहीं करेगा । और इस बात के लिए उससे अधिक दोषी नहीं ठहराया जा सकता, जितना डाइनों को जलाने का दोष ईसाई धर्म पर मढ़ा जा सकता हैं ।
अतः हिन्दुओं की दृष्टि में समस्त धर्मजगत् भिन्न भिन्न रुचिवाले स्त्री-पुरुषों की, विभिन्न अवस्थाओं एवं परिस्थियों में से होते हुए एक ही लक्ष्य की ओर यात्रा हैं, प्रगति हैं । प्रत्येक धर्म जड़भावापन्न मानव से एक ईश्वर का उद्भव कर रहा हैं, और वबी ईश्वर उन सब का प्रेरक हैं । तो फिर इतने परस्पर विरोध क्यों हैं ? हुन्दुओं का कहना हैं कि ये विरोध केवल आभासी हैं । उनकी उत्पत्ति सत्य के द्वारा भिन्न अवस्थाओं और प्रकृतियों के अनुरुप अपना समायोजन करते समय होती हैं ।
वही एक ज्योति भिन्न भिन्न रंग के काँच में से भिन्न भिन्न रूप से प्रकट होती हैं । समायोजन के लिए इस प्रकार की अल्प विविधता आवश्यक हैं । परन्तु प्रत्येक के अन्तस्तल में उसी सत्य का राज हैं । ईश्वर ने अपने कृष्णावतार में हिन्दुओं को यह उपदश दिया हैं , ‘प्रत्येक धर्म में मैं , मोती की माला में सूत्र की तरह पिरोया हुआ हूँ ।’ — गीता ॥७.७॥ ‘जहाँ भी तुम्हें मानवसृष्टि को उन्नत बनानेवाली और पावन करनेवाली अतिशय पवित्रता और असाधारण शक्ति दिखाई दे, तो जान लो कि वह मेरे तेज के अंश से ही उत्पन्न हुआ हैं ।’ –गीता ॥१०.४१॥ और इस शिक्षा का परिणाम क्या हुआ ? सारे संसार को मेरी चुनौती हैं कि वह समग्र संस्कृत दर्शनशास्त्र में मुझे एक ऐसी उक्ति दिखा दे, जिसमें यह बताया गया हो कि केवल हिन्ुओं का ही उद्धार होगा और दूसरों का नहीं । व्यास कहते हैं, ‘हमारी जाति और सम्प्रदाय की सीमा के बाहर भी पूर्णत्व तक पहुँचे हुए मनुष्य हैं ।’ –वेदान्तसूत्र ॥३.४.३६॥ एक बात और हैं । ईश्वर में ही अपने सभी भावों को केन्द्रित करनेवाला हिन्दू अज्ञेयवादी बौद्ध और निरीश्वरवादी जैन धर्म पर कैसे श्रद्धा रख सकता हैं ?
यद्यपि बौद्ध और जैन ईश्वर पर निर्भर नहीं रहते. तथापि उनके धर्म की पूरी शक्ति प्रत्येक धर्म के महान् केन्द्रिय सत्य — मनुष्य में ईश्वरत्व — के विकास की ओर उन्मुख हैं । उन्हौंने पिता को भले न देखा हो, पर पुत्र को अवश्य देखा हैं । और जिसने पुत्र को देख लिया , उसने पिता को भी देख लिया ।
भाइयों ! हिन्दुओं के धार्मिक विचारों की यहीं संक्षिप्त रूपरेखा हैं । हो सकता हैं कि हिन्दू अपनी सभी योजनाओं की कार्यान्वित करने में असफल रहा हो , पर यदि कभी कोई सार्वभौमिक धर्म होना हैं, तो वह किसी देश या काल से सीमाबद्ध नहीं होगा, वह उस असीम ईश्वर के सदृश ही असीम होगा, जिसका वह उपदेश देगा; जिसका सूर्य श्रीकृष्ण और ईसा के अनुयायियों पर, सन्तों पर और पापियों पर समान रूप से प्रकाश विकीर्ण करेगा , जो न तो ब्राह्मण होगा , न बौद्ध, न ईसाई और न इस्लाम , वरन् इन सब की समष्टि होगा, किन्तु फिर भी जिसमें विकास के लिए अनन्त अवकाश होगा; जो इतना उदार होगा कि पशुओं के स्तर से सिंचित उन्नत निम्नतम घृणित जंगली मनुष्य से लेकर अपने हृदय और मस्तिष्क के गुणों के कारण मानवता से इतना ऊपर उठ गये हैं कि उच्चतम मनुष्य तक को, जिसके प्रति सारा समाज श्रद्धामत हो जाता हैं और लोग जिसके मनुष्य होने में सन्देह करते हैं, अपनी बाहुओं से आलिंगन कर सके और उनमें सब को स्थान दे सके । धर्म ऐसा होगा, जिसकी नीति में उत्पीड़ित या असहिष्णुता का स्थान नहीं होगा ; वह प्रत्येक स्त्री और पुरुष में दिव्यता का स्वीकार करेगा और उसका सम्पूर्ण बल और सामर्श्य मानवता को अपनी सच्ची दिव्य प्रकृति का साक्षात्कार करने के किए सहायता देने में ही केन्द्रित होगा ।
आप ऐसा ही धर्म सामने रखिए , और सारे राष्ट्र आपके अनुयायी बन जाएँगे । सम्राट् अशोक की परिषद् बोद्ध परिषज् थी । अकबर की परिषद् अधिक उपयुक्त होती हुई भी , केवल बैठक की ही गोष्ठी थी । किन्तु पृथ्वी के कोने कोने में यह घोषणा करने का गौरव अमेरिका के लिए ही सुरक्षित था कि ‘प्रत्येक धर्म में ईश्वर हैं ।’
वह, जो हिन्दुओं का ब्रह्म, पारसियों का अहुर्मज्द, बौद्धो का बुद्ध, यहूदियों का जिहोवा और ईसाइयों का स्वर्गस्थ पिता हैं , आपको अपने उदार उद्देश्य को कार्यन्वित करने की शक्ति प्रदान करे ! नक्षत्र पूर्व गगन में उदित हुआ और कभी धुँधला और कभी देदीप्यमान होते हुए धीरे धीरे पश्चिम की ओर यात्रा करते करते उसने समस्त जगत् की परिक्रमा कर डाली और अब फिर प्राची के क्षितिज में सहस्र गुनी अधिक ज्योति के साथ उदित हो रहा हैं !
ऐ स्वाधीनता की मातृभूमि कोलम्बिया , तू धन्य हैं ! यह तेरा सौभाग्य हैं कि तूने अपने पड़ोसियों के रक्त से अपने हाथ कभी नहीं हिगोये , तूने अपने पड़ोसियों का सर्वस्व हर्ण कर सहज में ही धनी और सम्पन्न होमे की चेष्टा नहीं की, अतएव समन्वय की ध्वजा फहराते हुए सभ्यता की अग्रणी होकर चलने का सौभाग्य तेरा ही था ।
धर्म भारत की प्रधान आवश्यकता नहीं –
Religion Not The Crying Need Of India [20-Sep-1893]
स्वामी विवेकानंद – विश्वधर्म-महासभा, शिकागो, 20 सितंबर 1893
ईसाइयों को सत् आलोचना सुनने के लिए सदैव तैयार रहना चाहिए, और मुझे विश्वास हैं कि यदि मैं आप लोगों की कुछ आलोचना करूँ, तो आप बुरा न मानेंगे। आप ईसाई लोग जो मूर्तिपूजकों की आत्मा का उद्धार करने की निमित्त अपने धर्मप्रचारकों को भेजने के लिए इतने उत्सुक रहते हैं, उनके शरीरों को भूख से मर जाने से बचाने के लिए कुछ क्यों नहीं करते? भारतवर्ष में जब भयानक अकाल पड़ा था, तो सहस्रों और लाखों हिन्दू क्षुधा से पीडित होकर मर गये; पर आप ईसाइयों ने उनके लिए कुछ नहीं किया।
आप लोग सारे हिंदुस्तान में गिरजे बनाते हैं; पर पूर्व(की संस्कृति) का मुख्य अभाव धर्म नहीं हैं, उसके पास पर्याप्त धर्म हैं — जलते हुए हिंदुस्तान के लाखों दुःखार्त भूखे लोग सूखे गले से रोटी के लिए चिल्ला रहे हैं। वे हम से रोटी माँगते हैं, और हम उन्हे देते हैं पत्थर! क्षुधातुरों को धर्म का उपदेश देना उनका अपमान करना हैं, भूखों को दर्शन सिखाना उनका अपमान करना हैं। भारतवर्ष में यदि कोई पुरोहित द्रव्यप्राप्ति के लिए धर्म का उपदेश करे, तो वह जाति से च्युत कर दिया जाएगा और लोग उस पर थूकेंगे। मैं यहाँ पर अपने दरिद्र भाइयों के निमित्त सहायता माँगने आया था, पर मैं यह पूरी तरह से समझ गया हूँ कि मूर्तिपूजकों के लिए ईसाई-धर्मालंबियों से, और विशेषकर उन्हीं के देश में, सहायता प्राप्त करना कितना कठिन हैं ।
बौद्ध धर्म-Buddhism, The Fulfilment Of Hinduism [26-Sep-1893]
स्वामी विवेकानंद – विश्वधर्म-महासभा, शिकागो, 26 सितंबर 1893
मैं बौद्ध धर्मावलम्बी नहीं हूँ, जैसा कि आप लोगों ने सुना हैं, पर फिर भी मैं बौद्ध हूँ । यदि दीन, जापान अथवा सीलोन उस महान् तथागत के उपदेशों का अनुसरण करते हैं, तो भारत वर्ष उन्हें पृथ्वी पर ईश्वर का अवतार मानकर उनकी पूजा करता हैं । आपने अभी अभी सुना कि मैं बौद्ध धर्म की आलोचना करनेवाला हूँ , परन्तु उससे आपको केवल इतना ही समझना चाहिए । जिनको मैं इस पृथ्वी पर ईश्वर का अवतार मानता हूँ, उनकी आलोचना ! मुझसे यह सम्भव नहीं । परन्तु वुद्ध के विषय में हमारी धारणा यह हैं कि उनके शिष्यों ने उनकी शिक्षाओं को ठीक ठीक नहीं समझा । हिन्दू धर्म (हिन्दू धर्म से मेरा तात्पर्य वैदिक धर्म हैं ) और जो आजकल बौद्ध धर्म कहलाता हैं, उनमें आपस में वैसा ही सम्बन्ध हैं , जैसा यहूदी तथा ईसाई धर्मों में । ईसा मसीह यहूदी थे और शाक्य मुनि हिन्दू । यहूदियों ने ईसा को केवल अस्वीकार ही नहीं किया, उन्हें सूली पर भी चढ़ा दिया, हिन्दूओं नें शाक्य मुनि को ईश्वर के रूप में ग्रहण किया हैं और उनकी पूजा करते हैं । किन्तु प्रचलित बौद्ध धर्म नें तथा बुद्धदेव की शिक्षाओं में जो वास्तविक भेद हम हिन्दू लोग दिखलाना चाहते हैं, वह विशेषतः यह हैं कि शाक्य मुनि कोई नयी शिक्षा देने के लिए अवतीर्ण नहीं हुए थे । वे भी ईसा के समान धर्म की सम्पूर्ति के लिए आये थे , उसका विनाश करने नहीं । अन्तर इतना हैं कि जहाँ ईसा को प्राचीन यहूदी नहीं समझ पाये । जिस प्रकार यहूदी प्राचीन व्यवस्थान की निष्पत्ति नहीं समझ सके, उसी प्रकार बौद्ध भी हिन्दू धर्म के सत्यों की निष्पत्ति को नहीं समझ पाये । मैं यह बात फिर से दुहराना चाहता हूँ कि शाक्य मुनि ध्वंस करने नहीं आये थे, वरन् वे हिन्दू धर्म की ही निष्पत्ति थे, उसकी तार्किक परिणति और उसके युक्तिसंगत विकास थे ।
हिन्दू धर्म के दो भाग हैं – कर्मकाण्ड और ज्ञानकाण्ड । ज्ञानकाण्ड का विशेष अध्ययन संन्यासी लोग करते हैं ।
ज्ञानकाण्ड में जाति भेद नहीं हैं । भारतवर्ष में उच्च अथवा तथाकथित नीच जाति के लोग संन्यासी हो सकते हैं, और तब दोनों जातियाँ समान हो जाती हैं । धर्म में जाति भेद नहीं हैं ; जाति तो एक सामाजिक संस्था मात्र हैं । शाक्य मुनि स्वमं संन्यासी थे , और यह उनकी ही गरिमा हैं कि उनका हृदय इतना विशाल था कि उन्होंने अप्राप्य वेदों से सत्यों को निकाल कर उनको समस्त संसार में विकीर्ण कर दिया । इस जगत् में सब से पहते वे ही ऐसे हुए, जिन्होंमे धर्मप्रचार की प्रथा चलायी — इतना ही नहीं , वरन् मनुष्य को दूसरे धर्म से अपने धर्म में दीक्षित करने का विचार भी सब से पहले उन्हीं के मन में उदित हुआ ।
सर्वभूतों के प्रति , और विशेषकर अज्ञानी तथा दीन जनों के प्रति अद्भुत सहानुभूति मेंं ही तथागत ता महान् गौरव सन्निहित हैं । उनके कुछ श्ष्य ब्राह्मण थे । बुद्ध के धर्मोपदेश के समय संस्कृत भारत की जनभाषा नहीं रह गयी थी । वह उस समय केवल पण्डितों के ग्रन्थों की ही भाषा थी । बुद्धदेव के कुछ ब्राह्मण शिष्यों मे उनके उपदेशों का अनुवाद संस्कृत भाषा में करना चाहा था , पर बुद्धदेव उनसे सदा यही कहते — ‘ मै दरिद्र और साधारण जनों के लिए आया हूँ , अतः जनभाषा में ही मुझे बोलने दो। ‘ और इसी कारण उनके अधिकांश उपदेश अब तक भारत की तत्कालीन लोकभाषा में पायें जाते हैं ।
दर्शनशास्त्र का स्थान चाहे जो भी दो, तत्त्वज्ञान का स्थान चाहे जो भी हो, पर जब तक इस लोक में मृत्यु मान की वस्तु हैं, जब तक मानवहृदय में दुर्वलता जैसी वस्तु हैं , जव तक मनुष्य के अन्तःकरण से उसका दुर्बलताजनित करूण क्रन्दन बाहर निकलता हैं, तव तक इस सेसार में ईश्वर में विश्वास कायम रहेगा ।
जहाँ तक दर्शन की बात हैं , तथागत के शिष्यों ने वेदों की सनातन चट्टानों पर बहुत हाथ-पैर पटके , पर वे उसे तोड न सके और दूसरी ओर उन्होंने जनता के बीच से उस सनातन परमेश्वर को उठा लिया, जिसमे हर नर-नारी इतने अनुराग से आश्रय लेता हैं । फल यह हुआ कि बौद्ध धर्म को भारतवर्ष में स्वाभाविक मृत्यु प्राप्त करनी पड़ी और आज इस धर्म की जन्मभूमि भारत में अपने को बौद्ध कहनेवाली एक भी स्त्री या पुरुष नहीं हैं ।
किन्तु इसके साथ ही ब्राह्मण धर्म ने भी कुछ खोया — समाजसुधार का वह उत्साह, प्राणिमात्र के प्रति वह आश्चर्यजनक सहानुभूति और करूणा , तथा वह अद्भुत रसायन, जिसे बौद्ध धर्म ने जन जन को प्रदान किया था एवं जिसके फलस्वरूप भारतीय समाज इतना महान् हो गया कि तत्कालीन भारत के सम्बन्ध में लिखनेवाले एक यूनानी इतिहासकार को यह लिखना पड़ा कि एक भी ऐसा हिन्दू नहीं दिखाई देता , जो मिथ्याभाषण करता हो ; एक भी ऐसी हिन्दू नारी नहीं हैं , जो पतिव्रता न हो । हिन्दू धर्म बौद्ध धर्म के बिना नहीं रह सकता और न बौद्ध धर्म हिन्दू धर्म के बिना ही । तब यह देखिए कि हमारे पारस्परिक पार्थक्य ने यह स्पष्ट रूप से प्रकट कर दिया कि बौद्ध, ब्राह्मणों के दर्शन और मस्तिष्क के बिना नहीं ठहर सकते, और न ब्राह्मण बौद्धों के विशाल हृदय के बिना । बौद्ध और ब्राह्मण के बीच यह पार्थक्य भारतवर्ष के पतन का कारण हैं । यही कारण हैं कि आज भारत में तीस करोड़ भिखमंगे निवास करते हैं , और वह एक सहस्र वर्षों से विजेताओं का दास बना हुआ हैं । अतः आइए, हम ब्राह्मणों की इस अपूर्व मेधा के साथ तथागत के हृदय, महानुभावता और अद्भुत लोकहितकारी शक्ति को मिला दें ।
अंतिम अधिवेशन में भाषण
धन्यवाद भाषण – Address At The Final Session [27-Sep-1893]
स्वामी विवेकानंद :विश्वधर्म-महासभा, शिकागो, 27 सितंबर 1893
विश्वधर्म महासभा एक मूर्तिमान तथ्य सिद्ध हो गई हैं और दयामय प्रभु ने उन लोगों की सहायता की हैं, तथा उनके परम निःस्वार्थ श्रम को सफलता से विभूषित किया हैं, जिन्होंने इसका आयोजन किया।
उन महानुभावों को मेरा धन्यवाद हैं, जिनके विशाल हृदय तथा सत्य के प्रति अनुराग ने पहले इस अदभुत स्वप्न को देखा और फिर उसे कार्यरूप में परिणत किया। उन उदार भावों को मेरा धन्यवाद, जिनसे यह सभामंच आप्लावित होता रहा हैं। इस प्रबुद्ध श्रोतृमंडली को मेरा धन्यवाद, जिसने मुझ पर अविकल कृपा रखी हैं और जिसने मत-मतांतरों के मनोमालिन्य को हल्का करने का प्रयत्न करने वाले हर विचार का सत्कार किया। इस समसुरता में कुछ बेसुरे स्वर भी बीच बीच में सुने गये हैं। उन्हें मेरा विशेष धन्यवाद, क्योंकि उन्होंने अपने स्वरवैचिञ्य से इस समरसता को और भी मधुर बना दिया हैं।
धार्मिक एकता की सर्वसामान्य भित्ति के विषय में बहुत कुछ कहा जा चुका हैं। इस समय मैं इस संबंध में अपना मत आपके समक्ष नहीं रखूँगा। किन्तु यदि यहाँ कोई यह आशा कर रहा हैं कि यह एकता किसी एक धर्म की विजय और बाकी धर्मों के विनाश से सिद्ध होगी, तो उनसे मेरा कहना हैं कि ‘भाई, तुम्हारी यह आशा असम्भव हैं।’ क्या मैं यह चाहता हूँ कि ईसाई लोग हिन्दू हो जाएँ? कदापि नहीं, ईश्वर भी ऐसा न करे! क्या मेरी यह इच्छा हैं कि हिदू या बौद्ध लोग ईसाई हो जाएँ? ईश्वर इस इच्छा से बचाए।
बीज भूमि में बो दिया गया और मिट्टी, वायु तथा जल उसके चारों ओर रख दिये गये। तो क्या वह बीज मिट्टी हो जाता हैं, अथवा वायु या जल बन जाता हैं? नहीं, वह तो वृक्ष ही होता हैं, वह अपनी वृद्धि के नियम से ही बढ़ता हैं — वायु , जल और मिट्टी को पचाकर, उनको उद्भित पदार्थ में परिवर्तित करके एक वृक्ष हो जाता हैं।
ऐसा ही धर्म के संबंध में भी हैं। ईसाई को हिंदू या बौद्ध नहीं हो जाना चाहिए, और न ही हिंदू अथवा बौद्ध को ईसाई ही। पर हाँ, प्रत्येक को चाहिए कि वह दूसरों के सारभाग को आत्मसात् करके पुष्टिलाभ करें और अपने वैशिष्ट्य की रक्षा करते हुए अपनी निजी बुद्धि के नियम के अनुसार वृद्धि को प्राप्त हो।
इस धर्म -महासभा ने जगत् के समक्ष यदि कुछ प्रदर्शित किया हैं, तो वह यह हैं: उसने सिद्ध कर दिया हैं कि शुद्धता, पवित्रता और दयाशीलता किसी संप्रदायविशेष की ऐकांतिक संपत्ति नहीं हैं, एवं प्रत्येक धर्म मे श्रेष्ठ एवं अतिशय उन्नतचरित स्त्री-पुरूषों को जन्म दिया हैं। अब इन प्रत्यक्ष प्रमाणों के बावजूद भी कोई ऐसा स्वप्न देखें कि अन्याम्य सागे धर्म नष्ट हो जाएँगे और केवल उसका धर्म ही जीवित रहेगा, तो उस पर मैं अपने हृदय के अंतराल से दया करता हूँ और उसे स्पष्ट बतलाए देता हूँ कि शीघ्र ही सारे प्रतिरोधों के बावजूद प्रत्येक धर्म की पताका पर यह लिखा रहेगा — ‘सहायता करो, लडो मत’ ; ‘परभाव-ग्रहण, न कि परभाव-विनाश’ ; ‘समन्वय और शांति , न कि मतभेद और कलह!’