पुण्यतिथि पर विशेष
“तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूंगा”
नरेंद्र सहगल
यह एक ऐतिहासिक सच्चाई है कि नेताजी सुभाषचंद्र बोस के नेतृत्व में आजाद हिन्द फौज ने ब्रिटिश साम्राज्यवाद पर अंतिम निर्णायक प्रहार किया था. 21 अक्तूबर, 1943 को नेता जी द्वारा सिंगापुर में गठित आजाद हिन्द सरकार को जापान और जर्मनी सहित नौ देशों ने मान्यता दे दी थी. अंडमान और निकोबार द्वीप समूह पर इस सरकार ने 30 दिसंबर को भारत का राष्ट्रध्वज तिरंगा फहरा कर आजाद भारत की घोषणा कर दी थी.
अत: यह कहने में कोई भी अतिशयोक्ति नहीं होगी कि नेताजी द्वारा गठित सरकार स्वतंत्र भारत की पहली सरकार थी. नेताजी सुभाषचंद्र बोस स्वतंत्र भारत के प्रथम प्रधानमंत्री थे. 30 दिसंबर, 1943 ही वास्तव में भारत का स्वतंत्रता दिवस है. इसी दिन नेताजी ने अखण्ड भारत की सर्वांग एवं पूर्ण स्वतंत्रता का बिगुल बजाया था. दुर्भाग्य से कांग्रेस द्वारा देश का विभाजन स्वीकार कर लिया गया और 15 अगस्त को खण्डित भारत का स्वतंत्रता दिवस स्वीकृत हो गया.
उपरोक्त तथ्यों की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि में झांक कर देखें तो स्पष्ट हो जाएगा कि स्वतंत्रता संग्राम के इस महत्वपूर्ण एवं निर्णायक अध्याय को जानबूझ कर इतिहास के कूड़ेदान में डाल देने का राष्ट्रीय अपराध किया गया. आजाद हिन्द सरकार के 75 वर्ष पूर्ण हो चुके हैं, इस अवसर पर देश के नागरिकों, युवा पीढ़ी को ऐतिहासिक तथ्य से अवगत करवाकर गलती को सुधारने का सुनहरा अवसर हमारे पास है.
यही ऐतिहासिक अन्याय वीर सावरकर, सरदार भगत सिंह, चन्द्रशेखर आजाद, रास बिहारी बोस, डॉ. हेडगेवार जैसे सैकड़ों देशभक्त क्रांतिकारियों एवं आजाद हिन्द फौज के 30 हजार बलिदानी सैनिकों के साथ किया गया है. आर्य समाज, हिन्दू महासभा इत्यादि के योगदान को भी नकार दिया गया.
नेताजी सुभाषचन्द्र बोस कांग्रेस के प्रखर राष्ट्रीय नेता थे. वे किसी भी प्रकार के तुष्टिकरण के घोर विरोधी थे. नेताजी के अनुसार केवल अहिंसक सत्याग्रहों से ही देश आजाद नहीं हो सकता. नेताजी के इसी एक निर्विवाद सिद्धांत के कारण गांधीवादी नेताओं ने उन्हें 29 अप्रैल 1939 को कांग्रेस का अध्यक्ष पद छोड़ने के लिए मजबूर कर दिया. नेताजी ने 03 मई 1939 को अपने सहयोगियों की सहायता से एक स्वतंत्र संगठन फॉरवर्ड ब्लाक की स्थापना की. उन्होंने समस्त राष्ट्रीय शक्तियों को एकत्रित करने का अभियान छेड़ दिया.
सितंबर 1939 में पोलैण्ड पर जर्मनी के हमले के साथ द्वितीय विश्वयुद्ध प्रारंभ हो गया. ब्रिटेन और फ्रांस भी युद्ध में कूद पड़े. नेताजी ने इस अवसर का लाभ उठाकर अंग्रेजों की सत्ता उखाड़ने के लिए युद्ध स्तर पर प्रयास प्रारंभ कर दिए. उन्होंने अनेक क्रांतिकारी नेताओं वीर सावरकर, डॉ. हेडगेवार एवं डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी जैसे स्वातंत्र्य योद्धाओं के साथ मिलकर निर्णायक प्रहार का ऐतिहासिक फैसला किया.
इसी उद्देश्य से नेताजी गुप्त रूप से विदेश चले गए. वहां उन्होंने हजारों क्रांतिकारी देशभक्त भारतीय युवाओं की योजनाबद्ध ढंग से इस फौज में भर्ती की. इधर, वीर सावरकर ने भारतीय सेना में विद्रोह करवाने की मुहिम छेड़ दी. आजाद हिन्द फौज अपने उद्देश्य के अनुसार सफलता की ओर बढ़ने लगी. नेताजी के नेतृत्व में आजाद हिन्द फौज ने जिस स्वाधीनता संग्राम का श्रीगणेश किया, उसने तो ब्रिटिश साम्राज्यवाद के विनाश का बिगुल ही बजा दिया. इस फौज के सेनापति सुभाष चन्द्र बोस ने जैसे ही दिल्ली चलो का उद्घोष किया, भारतीय सेना में विद्रोह की आग लग गई. डॉ. हेडगेवार, सावरकर और सुभाष चन्द्र के बीच पूर्व में बनी एक गुप्त योजना के अनुसार भारतीय सेना में भर्ती हुए युद्ध सैनिकों ने अंग्रेज सरकार को उखाड़ डालने के लिए कमर कस ली. यह जवान सैनिक प्रशिक्षण लेकर अंग्रेजों के विरुद्ध लड़ेंगे, इसी उद्देश्य से भर्ती हुए थे.
राष्ट्रीय अभिलेखागार में उपलब्ध गुप्तचर विभाग की रपटों में कहा गया है कि “20 सितंबर, 1943 को नागपुर में हुई संघ की एक गुप्त बैठक में जापान की सहायता से आजाद हिन्द फौज के भारत की ओर कूच के समय संघ की सम्भावित योजना के बारे में विचार हुआ था.” एक दिन अवश्य ही इस दबी हुई सच्चाई पर से पर्दा उठेगा कि वीर सावरकर एक महान उद्देश्य के लिए तथाकथित माफीनामा लिख कर जेल से बाहर आए थे. यह अंग्रेजों की आंखों में धूल झोंकने जैसा कदम था. अभिनव भारत का गठन, सेना में विद्रोह, और आजाद हिंद फौज की स्थापना इस रणनीति का हिस्सा थे.
सन् 1945 में द्वितीय विश्वयुद्ध की समाप्ति के तुरंत पश्चात ब्रिटिश शासक इस निष्कर्ष पर पहुंच चुके थे कि अब भारत में उनका रहना और शासन करना संभव नहीं होगा. दुनिया के अधिकांश देशों पर अपना अधिपत्य जमाए रखने की उनकी शक्ति और संसाधन पूर्णतया समाप्त हो चुके हैं. वास्तव में यही वजह थी – अंग्रेजों के भारत छोड़ने की.
लखनऊ से प्रकाशित मासिक पत्रिका ‘राष्ट्रधर्म’ के नवंबर 2009 के अंक में के.सी. सुदर्शन जी का एक लेख ‘पाकिस्तान के निर्माण की व्यथा’ छपा था. जिसमें लिखा था – “जिस ब्रिटिश प्रधानमंत्री एटली के काल में भारत को स्वतंत्रता मिली, वे 1965 में एक निजी दौरे पर कोलकत्ता आए थे और उस समय के कार्यकारी राज्यपाल और कलकत्ता उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश सी.डी. चक्रवर्ती के साथ राजभवन में ठहरे थे.
बातचीत के दौरान चक्रवर्ती ने सहजभाव से पूछा कि 1942 का आंदोलन तो असफल हो चुका था और द्वितीय विश्वयुद्ध में भी आप विजयी रहे, फिर आपने भारत क्यों छोड़ा? तब एटली ने कहा था कि हमने 1942 के कारण भारत नहीं छोड़ा, हमने भारत छोड़ा नेताजी सुभाषचन्द्र बोस के कारण. नेताजी अपनी फौज के साथ बढ़ते-बढ़ते इंफाल तक आ चुके थे और उसके तुरंत बाद नौसेना एवं वायु सेना में विद्रोह हो गया था.” जाहिर है कि अंग्रेज शासकों का दम निकल चुका था. अगर उस समय कांग्रेस ने नेताजी सुभाष चन्द्र बोस, वीर सावरकर, डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी और संघ के बड़े अधिकारियों के साथ संयुक्त संग्राम छेड़ा होता तो देश स्वतंत्र भी होता और भारत का दुःखद विभाजन भी नहीं होता.