हिंदू काफ़िरों.. सावधान..!


~ कृष्णमुरारी त्रिपाठी अटल 

हिंदू काफ़िर है और काफ़िरों के साथ जिहादी आतंकी कैसा सलूक करते हैं।ये देखना है तो भारत में 7 वीं सदी से प्रारंभ हुए क्रूर, बर्बर इस्लामिक आक्रमण से अब तक के हालातों को देख लीजिए। अक्सर सेक्युलरिज्म के नाम पर हिंदुओं को भाईचारे की दुहाई दी जाती है। सहिष्णुता और साम्प्रदायिक सौहार्द की चासनी में तथाकथित ‘गंगा-जमनी तहज़ीब’ के राग अलापे जाते हैं । जहां भाई चारे में हिंदू सिर्फ़ ‘चारा’ होता है और तहज़ीब में ‘जिबह’ होना छुपा होता है। याद कीजिए इस्लामिक आक्रांताओं की बर्बरता, वहशीपन, दरिंदगी और क्रूरता। ये इसलिए नहीं कि मुस्लिमों से किसी को नफ़रत करनी है। हिंदू स्वभावत: किसी से नफ़रत नहीं करता है। इसी का प्रतिफल है कि देश की दूसरी सबसे बड़ी बहुसंख्यक आबादी ; अल्पसंख्यक के तमगे के साथ ठसक के साथ रहती है। अन्यथा पाकिस्तान और बांग्लादेश के अल्पसंख्यकों का क्या हश्र हुआ ये जगजाहिर है। सच्चाई तो यह है कि हिंदू होना ही सबके सुरक्षित और भारत के सेक्युलर होने की गारंटी है। लेकिन जब आप आतंक का, हिंदुओं के योजनाबद्ध नरसंहार और हत्याओं का नार्मलाइजेशन कर देते हैं। सेक्युलरिज्म की जहरीली घुट्टी पिलाने लग जाते हैं। उससे राष्ट्र को सबसे अधिक ख़तरा होता है। उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की इस बात पर गौर कीजिए — “एक मुस्लिम परिवार 100 हिंदू परिवारों के बीच सबसे सुरक्षित है। उन्हें सभी अपने धार्मिक कार्यों का पालन करने की स्वतंत्रता होती है, लेकिन क्या 100 मुस्लिम परिवारों के बीच 50 हिंदू सुरक्षित हो सकते हैं? नहीं। बांग्लादेश इसका उदाहरण है। इससे पहले पाकिस्तान इसका उदाहरण था।”

क्या ये सारी चीज़ें आप नहीं महसूस करते? हो सकता है कि आपकी विवशता हो लेकिन क्या यह सच्चाई नहीं है? क्या भारत का अतीत और वर्तमान योगी आदित्यनाथ के बयान की सच्चाइयों से नहीं भरा पड़ा है? ये सवाल ख़ुद से पूछिए न। क्या इन गंभीर बातों पर चर्चा नहीं होनी चाहिए? ऐसा क्यों होता है जहां-जहां से हिंदुओं की आबादी घटती जाती है। देश के वो इलाके क्रमशः हिंदुओं से खाली होते चले जाते हैं।

अब चलिए कश्मीर के पहलगाम में. आतंकी जब हत्या करते हुए ये कह रह थे कि जाकर मोदी को बता देना। तब वो क्या कह रहे थे? दरअसल, वो अपनी जिहादी मानसिकता का परचम बुलंद कर रहे थे न? इस ख़तरे को बाबा साहेब डॉ अंबेडकर अच्छी तरह से जानते और समझते थे उन्होंने चेतावनी भी दी लेकिन क्या किसी ने उनकी सुनी? उन्होंने कहा था कि – “यह उल्लेखनीय है कि जो मुसलमान अपने आपको दार-उल-हर्ब में पाते हैं, उनके बचाव के लिए हिजरत ही उपाय नहीं हैं। मुस्लिम धार्मिक कानून की दूसरी आज्ञा जिहाद (धर्म युद्ध) है, जिसके तहत हर मुसलमान शासक का यह कर्त्तव्य हो जाता है कि इस्लाम के शासन का तब तक विस्तार करता रहे। जब तक सारी दुनिया मुसलमानों के नियंत्रण में नहीं आ जाती। संसार के दो खेमों में बंटने की वजह से सारे देश या दो दार-उल-इस्लाम (इस्लाम का घर) या दार-उल-हर्ब (युद्ध का घर) की श्रेणी में आते हैं। 
तकनीकी तौर पर हर मुस्लिम शासक का, जो इसके लिए सक्षम है, कर्त्तव्य है कि वह दार-उल-हर्ब को दार-उल-इस्लाम में बदल दे; और भारत में जिस तरह मुसलमानों के हिज़रत का मार्ग अपनाने के उदाहरण हैं, वहाँ ऐसे भी उदाहरण हैं कि उन्होंने जिहाद की घोषणा करने में संकोच नहीं किया।”

 “तथ्य यह है कि भारत, चाहे एक मात्र मुस्लिम शासन के अधीन न हो, दार-उल-हर्ब है, और इस्लामी सिद्धान्तों के अनुसार मुसलमानों द्वारा जिहाद की घोषणा करना न्यायसंगत है। वे जिहाद की घोषणा ही नहीं कर सकते, बल्कि उसकी सफलता के लिए विदेशी मुस्लिम शक्ति की मदद भी ले सकते हैं, और यदि विदेशी मुस्लिम शक्ति जिहाद की घोषणा करना चाहती है तो उसकी सफलता के लिए सहायता दे सकते हैं।” (बाबा साहेब डॉ. अम्बेडकर सम्पूर्ण वाङ्मय खंड १५-‘पाकिस्तान और भारत के विभाजन, २००० , पृ. २९७-२९८)

जम्मू-कश्मीर के पहलगाम में जिस ढंग से चुन-चुनकर हिंदू होने के आधार पर हत्या की गई। कलमा पढ़ने के लिए विवश किया गया। क्या आप इस जिहादी आतंकी की मानसिकता को नहीं समझना चाहते हैं? क्या शुतुरमुर्ग की तरह रेत पर सिर ही धसाए रहना चाहते हैं? चलिए ज्यादा दूर मत जाइए 1921 का मोपला नरंसहार देखिए। 1946 के नोआखली नरसंहार के पन्ने पलटिए। 1946 में मुस्लिम लीग के द्वारा शुरू डायरेक्ट एक्शन डे का हिंदू नरसंहार देखिए। भारत विभाजन की विभीषिका देखिए। स्वातंत्र्य के पहले और बाद के दंगे देखिए। 1990 में कश्मीर में हिंदुओं का सामूहिक नरंसहार देखिए। इन सबका पैटर्न, माड्यूल और हिंसा, क्रूरता और बर्बरता सब एक जैसे मिलेंगे। वही स्क्रिप्ट मिलेगी।बस चेहरे बदले मिलेंगे। गोधरा याद है जब अयोध्या से लौट रहे कारसेवकों की ट्रेन की बोगी को योजनाबद्ध ढंग से आग के हवाले कर दिया गया था? हिंदुओं की हत्या कर दी गई। ज्यादा निकट में ही CAA कानून की ख़िलाफ़त के समय 2020 के दिल्ली दंगे के क्रूर पन्नों को पलट लीजिए। जब चुन-चुनकर हिंदुओं की दुकानें, कारें जलाई गईं। आईबी के अधिकारी अंकित शर्मा समेत, हिंदुओं की बर्बरता के साथ हत्या की गई।

अब और करीब जाइए और पश्चिम बंगाल के मुर्शिदाबाद चलिए। यहां हिंदुओं का क्या गुनाह था? जो चुन-चुनकर जिहादी आतंकियों की भीड़ ने हमला किया। आगजनी, लूटपाट और कत्लेआम मचाया। हिंदुओं ने किसका क्या बिगाड़ा था? अपनी माटी से भागे।शरणार्थी बन गए। वहां से भी क्या फैक्ट निकलकर सामने आया कि – ‘हिंदू’ थे इसलिए चुनकर-चुनकर जिहादियों ने हत्या की। दुकान, मकान और कारें जलाई।हिंसा और उत्पात किया। क्या हिंदुओं को अपने हिंदू होने की चिन्ता सताती है? क्या हिंदुओं के देश में हिन्दू होना ही अपराध हो गया है? क्या ये सवाल आपके ज़ेहन में नहीं आते हैं? हिंदू अगर अपनी आत्मरक्षा की बात कह दे। जिहादी हत्यारों के विरोध में उतर आए। आतंकी घटनाओं और आक्रांताओं की चर्चा कर दे तो वो घोर साम्प्रदायिक सिद्ध हो जाता है।वहीं अगर चुप्पी साधे बैठा रहे तो उससे महान कोई है ही नहीं! लगातार देश के विभिन्न हिस्सों में जिस ढंग से जनसांख्यिकी बदल रही है। हिंदू अल्पसंख्यक होते जा रहे हैं। जिहादी आतंकियों के आगे सरकारें, न्याय व्यवस्था घुटने टेक रही हैं।उससे क्या हिंदुओं के अस्तित्व को चुनौती नहीं मिल रही है? काश्मीर के पहलगाम में आतंकी हमला हो। जिहादी दंगाइयों की भीड़ के नारे हों। हत्याओं के पैटर्न हों। क्या आप इनमें एकरुपता। एक तौर-तरीकों को नहीं देखते हैं? अगर नहीं देखते हैं तो देखिए। इतिहास के पन्नों को पलटिए क्यूंकि अब आपके अस्तित्व पर चुनौती आन पड़ी है। ज़रा! सोचिए हिंदू होने के नाते क्या आपके सामने गंभीर ख़तरे नहीं हैं? 

भारत विभाजन हुआ। पाकिस्तान और बांग्लादेश बना। इसके बाद लगातार देश के कई सारे इलाके हिंदुओं से खाली हो रहे हैं। लेकिन अगर फिर कोई विपत्ति आई तो हिंदुओं को कहां शरण मिलेगी? इस विश्व में और कौन सी धरती है जहां हिंदुओं को आश्रय मिलेगा। इन सवालों पर गंभीर चिंतन आवश्यक है। ये भी गौर कीजिए कि कितने मुस्लिम समाज के लोग जिहादी आतंक के खिलाफ मुखर होकर प्रतिकार करते हैं। अगर करते भी हैं तो उनकी मुस्लिम समाज में कितनी सुनवाई होती है? वहीं अशफ़ाक उल्ला खां, एपीजे कलाम, वीर अब्दुल हमीद, बिस्मिल्लाह खां, अलाउद्दीन खां, आरिफ़ मोहम्मद खान जैसे श्रेष्ठ नायकों की बातें कितने लोग मानते हैं? क्या इन महान आदर्शों को मुस्लिम समाज स्वीकार कर रहा है? क्या इनके रास्ते पर चलने की कोशिश कर रहा है? शायद बहुत कम। क्योंकि ये व्यक्तित्व भारतीयता के मूल्यों के आलोक में राष्ट्र को राह दिखाते हैं। जहां जिहादी आतंक, हिंसा, घ्रणा की कहीं कोई जगह नहीं है। इनके विचारों में हिंदू काफ़िर नहीं है। बल्कि वो स्वयं को हिंदू मानने और जीने में धन्यता का अनुभव करते हैं।

अतएव विचारों की, चिन्तन की एक सीमा रेखा का निर्धारण करना अनिवार्य है। क्यूंकि जब तक आत्मबोध, आत्मबल, राष्ट्रबोध और शत्रुबोध नहीं होगा। आत्मरक्षा के लिए ‘काफ़िर’ की परिभाषा का बोध नहीं होगा। तब तक हिंदुओं के सुरक्षित होने की कोई गारंटी नहीं है।जब हिंदू सुरक्षित नहीं रहेगा तो राष्ट्र कैसे सुरक्षित रहेगा? घटना केंद्रित चिंतन नहीं ‘जिहादी मानसिकता’ की जड़ों तक जाइए। उसी से कोई हल सूझेगा। अन्यथा, हिंदू तो सबकुछ भुला ही देता है। दो-चार दिन बाद अपने काम धंधे, व्यवसाय, नौकरी और सेक्यूलर तराने में डूब जाएगा। फिर पहलगाम में हिंदू होने के चलते की गई हत्याएं भूली बिसरी बातें हो जाएंगी। ठीक वैसे ही जैसे अब तक भूलने की बीमारी लगी है। फिर अचानक कोई नया ‘पहलगाम’ , मुर्शिदाबाद आएगा। जिहादी नारों के साथ कोई भीड़ आएगी।बंदूकों के साथ आतंकी आएंगे।‌ फिर उनका ‘माल-ए-गनीमत’ का कॉन्सेप्ट हिट होगा और निरीह हिंदू , जिहादी आतंकियों के हाथों कटता और मरता जाएगा। सरकारें कार्रवाई और जांचों से पीठ थपथपाएंगी। कोई ‘सब्बल’, कोई ‘नाभिषेक’ जिहादियों के लिए कोर्ट में केस लड़ेगा और बेल दिलाएगा। हिंदू सब भूलेगा और सो जाएगा? है न? 

~ कृष्णमुरारी त्रिपाठी अटल 
( साहित्यकार, स्तम्भकार एवं पत्रकार)

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