समरसता और आध्यात्मिकता के ज्योतिपुञ्ज गुरु घासीदास बाबा

भारत और भारतीयता के मूल्यों को समय-समय पर अपने तप, त्याग, वैराग्य,मेधा और ज्ञान से ऋषि-महर्षियों ने अभिसिंचित किया है।राष्ट्र और समाज को एकसूत्रता में पिरोकर जीवन का दर्शन दिया है।आचार-विचार और व्यवहार में समानता के मानकों को स्थापित करने हुए सामाजिकता और सांस्कृतिक एकजुटता के आदर्श सौंपे हैं। इसीलिए भारत की परंपरा में ‘संतों’ की महिमा अपरम्पार मानी जाती है।जब भी साधु-संत शब्द स्मरण में आते हैं तो सहज ही त्याग और तपस्या के सर्वोच्च मानक-दृश्य चित्र बनकर हमारे मनोमस्तिष्क में उभरने लगते हैं। बाबा गोस्वामी तुलसीदास जी ने श्रीरामचरितमानस में सन्तों की महिमा बताते हुए लिखा कि —

साधु चरित सुभ चरित कपासू। निरस बिसद गुनमय फल जासू॥

जो सहि दु:ख परछिद्र दुरावा। बंदनीय जेहिं जग जस पावा॥

अर्थात् — संतों का चरित्र कपास के चरित्र (जीवन) के समान शुभ है, जिसका फल नीरस, विशद और गुणमय होता है। संत स्वयं दुःख सहकर दूसरों के छिद्रों (दोषों) को ढकता है, जिसके कारण उसने जगत में वंदनीय यश प्राप्त किया है। 

भारत की इसी संत परंपरा का प्रतिनिधित्व करने वाले (सत्-नाम) ‘सतनाम’ पंथ के प्रवर्तक संत शिरोमणि गुरु घासीदास हैं। उनका संपूर्ण जीवन सामाजिक समरसता, एकजुटता, सत्य, दान-दया, धर्म, करुणा, समता और लोककल्याण के लिए समर्पित रहा। उन्होंने अपनी तपस्या और ईश्वर के प्रति समर्पण से अलौकिक सिद्धियां प्राप्त की थीं। इसके चलते समाज में उनकी ख्याति चमत्कारिक संत के रूप में थी। एक संत, समाज सुधारक, चिकित्साशास्त्री , आयुर्वेद के ज्ञाता और श्रेष्ठ नेतृत्वकर्ता के रूप में उनके आदर्श समाज को सतत् ऊर्जा प्रदान करते आ रहे हैं।  18 दिसंबर 1756 को वर्तमान छत्तीसगढ़ के बलौदाबाजार जिले के गिरौदपुरी गांव में  पिता महंगुदास और माता अमरौतिन के यहां उनका जन्म हुआ था। आगे चलकर उनका विवाह  सफुरामाता से हुआ।गुरु घासीदास- सफुरामाता की पांच संतानें — सुभद्रादेवी, अमरदास,  बालकदास, आगरदास और अड़गडिहादास थे। जो आगे चलकर गुरु घासीदास द्वारा स्थापित ‘सतनाम पंथ’ की गुरु की गद्दी पर आसीन हुए और धर्मोपदेश दिया।

गुरु घासीदास बाल्यकाल से ही  कुशाग्र बुद्धि के धनी थे। वो प्रकृति के तत्वों के ज्ञाता, औषधियों के जानकार और चिकित्साशास्त्री थे। जो अपने आर्युवेद विशेषज्ञ होने के नाते लोगों का उपचार करते थे।योग और अध्यात्म का संदेश देते थे। 

समाज को आत्मनिर्भर बनने और कठोर परिश्रम से धनोपार्जन करने की प्रेरणा प्रदान करते थे। उनके कालखंड में सामंती , जागीरदारी प्रथा और तत्कालीन शासकों, पिंडारियों और सूबेदारों का चौतरफा आतंक था। जो समाज में अमानवीय अत्याचार कर रहे थे। उस समय जाति-पाति और छुआछूत की विषाक्तता के चलते सामाजिक ताना-बाना बिखरा पड़ा हुआ था। मांस-मदिरा सेवन, बलि प्रथा से समाज कमजोर होता चला जा रहा था। तत्कालीन समाज में व्याप्त अनेकानेक कुरीतियों के चलते गुरु घासीदास विचलित रहते थे। उनके मन में समाज-सुधार और कल्याण की भावना उफनती रहती थी। भारतीय समाज की  दुर्दशा की पीड़ा उन्हें  कचोटती रहती थी। ऐसे में उन्होंने ईश्वर प्राप्ति के माध्यम से समाज के सशक्तिकरण का मार्ग चुना।

उस मार्ग की तपसाधना में लीन हो गए और समाज के समक्ष वो विराट आदर्श सौंपा जो आज भी लोक के ह्रदय में रचा-बसा हुआ है।

सत्य की खोज से ‘स्व’ की प्रतिष्ठा :

गुरु घासीदास सन् 1807 में सत्य की खोज में जगन्नाथ पुरी की यात्रा पर निकले। वो सारंगढ़ तक ही पहुंचें थे कि यहां उन्हें आत्मबोध हुआ और सत्-नाम (सत्यनाम)  रुपी  मणि मिली। इस प्रकार वो  सतनाम, सतनाम का उच्चारण करते हुए वापस लौटे और फिर समाज के कल्याणार्थ स्वयं को आहुत कर दिया। उन्होंने अपने कृतित्व से समाज को जागृत किया। उसके मूल ‘स्व’ को जगाया।आत्मदीप्ति की भारतीय परम्परा को पुनर्जीवन प्रदान किया। गुरु घासीदास द्वारा दिया गया सूत्र — ‘मनखे -मनखे एक बरोबर’ ; भारतीय जीवन मूल्यों का आदर्श है। जो समानता और समरसता के मानक को प्रस्तुत करता है। गुरु घासीदास जिस कालखंड में जन्मे उस समय सामाजिक भेदभाव, छुआछूत, पाखंड आदि कुरीतियां भारतीय जन-जीवन पर ग्रहण लगा रही थीं। ऐसे समय में छत्तीसगढ़ महतारी की कोख से गुरु घासीदास रुपी  अलौकिक ज्योतिपुञ्ज प्रकाशित हुआ। फिर वो ज्योतिपुञ्ज  संत शिरोमणि के रूप में प्रसिद्ध हुआ। जो आगे चलकर समाज की कुरीतियों को जड़ से मिटाने का आधार स्तम्भ बना। ऐसे गुरु घासीदास जी ने धर्म के ‘तत्व’ को जीवन में उतारा। उससे समाज की शल्यक्रिया के लिए ज्ञान और संस्कार रुपी औषधि तैयार की। फिर समाज को सशक्त और समृद्ध बनाने में जुट गए। 

 ज्ञान प्राप्ति और सत्-नाम संदेश: 

ऐसी मान्यता है कि गुरु घासीदास रायगढ़ जिले के सारंगढ़ के छातापहाड़ जंगल में ज्ञान प्राप्ति के लिए तप साधना में लीन हो गए। आगे चलकर यहीं उन्हें औंरा-धौंरा (तेंदू) वृक्ष के नीचे सत्य रुपी ज्ञान की प्राप्ति हुई। इसके बाद वो और अधिक तेजस्वी हो गए। सत्-पुरुष ( ईश्वर) के साक्षात्कार के साथ उनमें अपूर्व चेतना का सञ्चार हुआ।

आगे चलकर उन्होंने ईश्वर की उपासना, मांसाहार का त्याग करने, पशुबलि को जीवहत्या बताया और इस पर रोक लगाई। जीव मात्र के प्रति कल्याण की भावना के लिए समाज को जागृत किया। नारी को माता मानने और नारी सशक्तिकरण के लिए समाज को प्रेरित किया। गुरु घासीदास ने छूत-अछूत का भेदभाव समाप्त करने और मन-वचन-कर्म की शुद्धता रखने का सन्देश दिया।  समाज को अहिंसा का मार्ग अपनाते हुए ‘सतनाम’ जप करने और ईश्वर की उपासना का व्रत दिया। सतनाम पंथ के अनुयायियों का पवित्र जनेऊ संस्कार कराया और आचरण में पवित्रता का बोध प्रदान किया। गुरु घासीदास कहते थे कि — जात-पात, छुआछूत के भेदभाव मनुष्य द्वारा बनाए गए हैं। परमात्मा की दृष्टि में सभी समान हैं। परमात्मा सबके प्रति समदर्शी हैं। अतएव हमें मनुष्य में भेदभाव नहीं करना चाहिए। सबको समानता के भाव के साथ देखना चाहिए। वे गुरु भक्ति और सभी धर्मों के साथ-साथ उनकी परंपराओं का आदर करने का संदेश देते थे।सबको ईश्वर प्राप्ति का सुगम पथ बतलाते थे।

सत्-नाम ( सतनाम) की महिमा :

गुरु घासीदास ने सत्-नाम ( सतनाम) की महत्ता पर बल दिया है। उन्होंने इसके बारे में बतलाते हुए कहा कि —  सत् ही नाम है। नाम ही सत् है। सत् ही सेवा और करूणा है। यह प्रेम,  चैतन्य, शील, सत्य और चरित्र का प्रतीक है।  जो मनुष्य का सबसे बड़ा आभूषण है। यही ‘मनखे मनखे एक समान’ का सर्वोच्च आदर्श है। उन्होंने ‘सतनाम’ संदेश में प्रकृति के पञ्च तत्वों यथा — वायु, जल, अग्नि, आकाश और पृथ्वी को अमर बताया है  बाकी सबको नाशवान बताया है। गुरु घासीदास कहते थे कि आत्मा-अजर, अमर और अविनाशी है। इसीलिए आत्मा को ‘सतपुरुष’ ( सत्पुरुष ) की संज्ञा दी गई है। आगे वो कहते हैं कि सतपुरूष आत्मज्ञानी के लिए— सत्य,अहिंसा, क्षमा,दया, प्रेम करुणा और उपकार के ये  गुण सतनाम मार्ग हैं । समानता, सत्यता और आत्मसम्मान सतपुरुष का स्वभाव है। इसीलिए  वो सतनाम जप करने की बात कहते हैं और उनकी स्पष्ट मान्यता है कि सतनाम से ही संसार का कल्याण होता है। सतनाम ही प्राणी के भवसागर को पार करने का रास्ता है। ज्ञान 

प्राप्ति के बाद  गुरु घासीदास के अनुयायी / भक्त गिरौदपुरी में आते थे और उपदेशों को सुनते, चिन्तन मंथन करते और समाज जागरण में लग जाते थे। 

सतनाम पंथ के लिए आदर्श :  

सतनाम पंथ  के लिए गुरु घासीदास ने 3 प्रमुख आदर्शों को पवित्र प्रतीक के रूप में स्थापित किया। ये पवित्र प्रतीक — जैतखाम,श्वेतध्वज और गुरूद्वारा हैं। पंथ में समाज और गुरू को न्यायकर्ता के रूप में प्रतिष्ठा प्राप्त है। इसके साथ ही उन्होंने सतनाम पंथ की 7 पहचान बताई और उसके पालन करने वालों को सतनामी के रूप में जाना गया।ये सात प्रमुख पहचान — गुरु, जैतखाम, गुरुगद्दी,जनेऊ,कण्ठीमाला, तिलक और अमृत हैं। इन आदर्शों का पालन करते हुए उन्होंने श्रेष्ठ समाज रचना का आदर्श सौंपा। गुरु घासीदास ने संस्कारों और मूल्यों की ऐसी विरासत सौंपी है जो मनुष्यत्व से देवत्व की यात्रा का पथ प्रशस्त करती है। उनके सतनाम उपदेशों में सामाजिक ऐक्यता के साथ सांस्कृतिक मूल्यों को आत्मसात करने और उनके आचरण की शुचिता अंतर्निहित थी। उन्होंने केवल छत्तीसगढ़ ही नहीं अपितु देश भर में ज्ञान और भक्ति के साथ अध्यात्म की धारा लिए हुए समाज को चैतन्य बनाया।आंदोलन चलाया। सामाजिक समरसता का मंत्र फूंका। भेदभाव करने वाली रूढ़ियों को समाप्त करते हुए भारतीय समाज को सशक्त बनाया। 

अलौकिक गिरौदपुरी धाम : 

गिरौदपुरी धाम में सत्पुरुष संत शिरोमणि गुरु घासीदास की तपसाधना का साक्षात् दर्शन  मिलता है। प्रकृति की अलौकिक छटा के मध्य आध्यात्मिकता के वातावरण में गुरु घासीदास के महान विचारों की गूंज सर्वत्र गुंजित होती रहती है। गिरौदपुरी धाम में उनकी पावन स्मृति में वर्ष 1935 में गुरु गोसाईं अगमदास द्वारा शुरू मेला अपने वृहद रूप में सामाजिक समरसता के महाकुंभ के रूप जाना जाता है।जो फाल्गुन शुक्ल पंचमी से लेकर सप्तमी तक तीन दिन लगता है।इस पावन मेले में देश-विदेश से लाखों की संख्या में श्रद्धालु और भक्त आते हैं। यहां गुरु दर्शन के साथ-साथ—गुरु घासीदास के  जन्म स्थान, सफुरामठ, छातापहाड़, बाघमाड़ा, अमृतकुण्ड, चरणकुण्ड ,पचकुण्डी और विशालकाय गगनचुंबी, जयस्तंभ के साथ जोकनदी आदि स्थलों में श्रद्धा सुमन अर्पित करते हैं।संत शिरोमणि गुरु घासीदास के पदचिन्हों पर चलने का संकल्प लेते हैं। 

छत्तीसगढ़ महतारी की कोख से जन्मे संत शिरोमणि गुरु घासीदास ने राष्ट्रीय एकता, एकात्मता के सूत्रों को जन-जन के आचरण में ढाला। उन्होंने  जहां भेद-भाव, कुरीतियों, पाखंडों और अन्याय के प्रतिकार का मार्ग प्रशस्त किया। वहीं उन्होंने भारतीय संत परंपरा का अनुगमन करते हुए समरसता और आध्यात्मिकता के साथ कर्त्तव्यबोध जगाया। भारतीय मूल्यों और परंपरा के प्रति गहरी श्रद्धा और आदर का भाव जागृत किया। व्यक्तिगत आचरण से लेकर सामाजिक आचरण शुचिता और नैतिकता के मूल्यों की संस्थापना की‌।गुरु घासीदास के विचारों और दर्शन में ऐसा कुछ भी नहीं है जो नकारात्मक हो।

वर्तमान कालखंड में जब राष्ट्र और समाज में भेदभाव उत्पन्न करने और समाज को  तोड़ने के लिए आसुरी शक्तियां रुप बदलकर सामने आ रही हैं। वो कभी मिशनरियों के कन्वर्जन के आतंक के रूप में सामने आती हैं तो कभी समाज में जाति-पाति और वर्ग संघर्ष की आग के रूप में दिखाई देती हैं। ऐसे में संत शिरोमणि गुरु घासीदास के शाश्वत विचार, दर्शन और उनके द्वारा स्थापित परंपराएं समाज को एकजुट करने का संदेश देती हैं।  उनके आदर्श – मूल्यों का पालन करते  हुए राष्ट्र और समाज को सशक्त बनाने। जन-जन में ‘स्व’ के बोध के साथ धर्मानुसार आचरण करने और प्राणिमात्र के प्रति कल्याण की भावना को जागृत करते हैं। ऐसे में सभी का कर्त्तव्य होता है कि – हम उनके बतलाए रास्ते पर चलते हुए राष्ट्रीयता के मंत्र को उच्चारित करें। समानता और समरसता को जीवन में उतारें और प्रकृति-पर्यावरण के संरक्षण के लिए प्रतिबद्ध हों। लोककल्याण के लिए अपने-अपने कर्त्तव्यबोध को निभाएं।यही गुरु घासीदास के सच्चे अनुयायी होने की सार्थकता होगी।

~ कृष्णमुरारी त्रिपाठी अटल 

( साहित्यकार, स्तम्भकार एवं पत्रकार)

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